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________________ समत्वयोग और महात्मा गांधी ६१ गाँधीजी विशाल कल कारखानों के स्थान पर लघु एवं कुटीर उद्योगों पर अर्थ-व्यवस्था को प्रतिष्ठित देखना चाहते थे । उनकी भावना विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था थी जिसमें शोषण तथा वैषम्य की सम्भावनाएँ कम से कम हो, क्षेत्रीय स्तर पर देश की हर इकाई स्वायत्त हो, स्वावलम्बा हो । श्रम को वे पूजा की तरह एक पवित्र यज्ञ मानते थे । चर्खा चलाने को भी उन्होंने एक प्रकार का यज्ञ माना है । गाँधीजी ने अपनी आँखों से विषमता और शोषण के लौह-चक्र के नीचे पिसते भारत के जन-जन को देखा जो भारी ओद्योगीकरण का प्रतिफल था । उन्होंने जून १९४७ के 'हरिजन' में लिखा "आज घोर आर्थिक विषमता है । समाजवाद का आधार आर्थिक समानता है । अन्यायपूर्ण विषमताओं की मौजूदा परिस्थिति में, जिसमें चन्द लोग धन-वैभव में सिर तक डूबे हैं और जनता को खाने को भी नहीं मिलता, रामराज्य कायम नहीं हो सकता ।" इसका उपाय एक ही है और वह बापू के शब्दों में यही है - " भारत का उद्धार तो इसी में है कि उसने पिछले पचास वर्षो में जो कुछ सीखा है, उसे भूल जाय।" महावीर का दिशा - परिमाण आरम्भसमारम्भ की अल्पता का आशय यही था जिसे सही सन्दर्भों में समझ कर देश अपनाता तो जापान की तरह हमारी आर्थिक स्थिति का कायापलट हो जाता । विसर्जन और अपरिग्रह, इच्छा परिमाण और उपभोग- परिमाण के व्रत शोषणमुक्त स्वस्थ समाज रचना की आधार पीठिकाएँ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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