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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि ३. समत्वयोग का महत्त्व दर्शन के सत्य ध्रुव होते हैं । उनकी अपेक्षा त्रैकालिक होती है । मानव- समाज की कुछ समस्याएँ बनती-मिटती रहती हैं । किन्तु कुछ समस्याएँ मौलिक होती हैं । वार्तमानिक समस्या के समाधान का दायित्व दर्शन पर होता है । पर मूलतः दर्शन उन समस्याओं का समाधान देता है, जो मौलिक होने के साथ-साथ दूसरी समस्याओं को उत्पन्न भी करती हैं । वैषम्य एक समस्या है । उसका कारण है - समत्व के दृष्टिकोण का अविकास ।
वर्तमान ज्ञान-विज्ञान के द्रुतगामी विकास ने जगत के कई अज्ञात रहस्यों को प्रकट किया है और कई ऐसे साधन व उपकरण आविष्कृत किये हैं जिनसे बाह्य इन्द्रियों की विषय-शक्ति को बढ़ने व फैलने का व्यापक क्षेत्र मिला है, पर शरीर के भीतर जिस चेतना का, आत्मा का निवास है, उसकी शक्ति के विकास के प्रयत्न उस अनुपात में नहीं हो पा रहे हैं । परिणाम-स्वरूप जीवन का सन्तुलन बिगड़ गया है, सिद्धान्त और आचरण की खाई अधिक चौड़ी होने लगी है और समाज में विषमता का रोग सभी स्तरों पर भयंकर रूप से फैलता जा रहा है ।
आज विषमताओं के कारण संसार प्रायः अशान्त, दःखी. बेचैन और परेशान है । धार्मिक क्षेत्र में देखें तो भी जो धर्म-सम्प्रदाय समता और शान्ति के लिए संसार में आया था, उसी धर्म-सम्प्रदाय के लोग परस्पर एक-दूसरे के प्रति कीचड़ उछालते हैं, आये दिन साम्प्रदायिक दंगे होते हैं । परस्पर वैरविरोध तो धर्म सम्प्रदायों को जन्म घुट्टी में ही मिला है । परस्पर गुण-ग्राहकता के बदले अपने धर्म सम्प्रदाय से भिन्न धर्म-सम्प्रदाय के अनुयायियों के दोष देखने की वृत्ति ही प्रायः अधिक प्रतीत होती है । धर्मान्धता के वैषम्य का यह विष काफी दूर-दूर तक फैला हुआ है। एक-दूसरे को मारने-पीटने. सताने. प्राणहरण करने, आजीविका छीन लेने, नौकरी न देने, बदनाम करने, झूठा आरोप लगाने आदि विषमताएँ तो आम बात है। ऐसी विषमता से सुख-शान्ति के बदले दुःख और अशान्ति, भय और चिन्ता ही अधिक बढ़ते हैं ।
सामाजिक क्षेत्र में ऊँच-नीच, छुआछूत, जातिगत भेदभाव, रंगभेद, राष्ट्रभेद, प्रान्तभेद, वर्गभेद आदि को लेकर भयंकर राग-द्वेष का जाल बिछा
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