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________________ समत्व का स्वरूप १३ कर मानवजीवन से सुख, शांति, व्यवस्था और समृद्धि निगल जाने के लिये तत्पर है । हम आज भले ही व्यक्ति से परिवार को लें या निखिल विश्व को, एक मनुष्य को ले या व्यापक मानव समाज को सभी में विषमता का ताण्डव अबाध गति से चल रहा है । दुःख की बात यह है कि यह सब उस चिंतन का परिणाम है जिसे मानवहित साधक बनना चाहिए था परन्तु धर्म, त्याग और नैतिकता के आदर्शों से कटकर वह विषमता का पोषक बन गया है । 'स्वतन्त्रता, समानता व बंधुत्व' के फांसीसी क्रांति के विचारक रूसो के मंत्र का यही परिणाम हुआ है । मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, फॉयड के मनोविश्लेषण और डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्तों की परिणति आज इस रूप में हुई है कि अर्थबुद्धि, अहंतुष्टि और स्वच्छंदवृत्ति के मार्गो का विकास हुआ है । परिवार में पति-पत्नी के बीच पारस्परिक सहयोग के बीच यदि अहंभाव बाधा बन कर खड़ा हो जाता है तो दो राष्ट्रों के बीच राष्ट्रवादी चिन्तन का भाव पारस्परिक वैमनस्य का कारण बन जाता है। भले ही नाजीवाद और फासिस्तवाद की पराजय हो चुकी हो तथापि राष्ट्रीय गौरव का बोध अथवा राष्ट्रहित की दृष्टि उस विश्वराज्य की स्थापना में बाधक बनी है जिसकी विराट स्तर पर कल्पना भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन ने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के आदर्श के रूप में सदियों पूर्व की थी । विषमता की यह कैसी स्थिति है ? इस भौतिकवादी आज के मनुष्य के संबंध में राष्ट्रकवि दिनकर ने ठीक ही लिखा है बुद्धि में नभ की सुरभि, तन में रुधिर की कीच । यह वचन से देवता, पर कर्म से पशु नीच ॥ परिणाम यह हुआ कि मनुष्य के अस्तित्व के लिए ही संकट उत्पन्न हो गया है । किस क्षण इस पृथ्वी से मानवजाति अथवा जीवन मात्र का लोप हो जायेगा, कोई नहीं कह सकता । विषमता अथवा असंतुलन की यह चरम स्थिति है । उद्धार का अब एक ही रास्ता है की विकास की गति को भिन्न दिशामें त्याग की दिशा में, प्रेम की दिशा में, सद्भाव की दिशा में और समभाव की दिशा में मोड़ दिया जाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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