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कर्म-मुक्ति का कारण होने लगता है, क्योंकि रागमें सांसारिकता का बीज सूखने लगता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि - द्वेष की मन्दतर मनःस्थिति
जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु । णासवदि सुहं असुहं, सम सुह- दुक्खस्स भिक्खुस्स ॥
अर्थात् जिस साधक का सभी द्रव्यों से राग, द्वेष और मोह हट जाता है और जो सुख - दुःख में समत्व रखता है उसे न पुण्य का आश्रय होता है और न पाप का ।
परन्तु समता भीतर हो, यह सभी स्थितियों में आवश्यक है। भीतर की समता को ही हम वैचारिक समता और उससे भी ऊपर आध्यात्मिक समता की संज्ञा देते हैं । मन में समता का अनुभाव जब समाविष्ट हो जाता है तो वही अनुभाव वाणी और कर्म में उतर कर बाहर की समता का एक ओर सृजन करता है तो दूसरी ओर आन्तरिक समता को सभी क्षेत्रों में प्रोत्साहित बनाता है । यह भीतर की समता पकड़ी नहीं जाती, बाहर से बनाई नहीं जाती, बल्कि साधी जाती है । विचार और आचार की निरन्तर साधना से ही भीतर की समता पैदा होती और पनपती है। जो एक बार भीतर की समता की सुखमय शान्ति का रसास्वादन कर लेता है, वह फिर उस समता के संरक्षण एवं संवर्धन से विलग कभी नहीं होता ।
आन्तरिक समता जब भीतर से पुष्ट बनकर बाहर प्रकट होती है तो वही करुणा, दया, सहानुभूति, सौहार्द्र, सौजन्य, सहयोग आदि सहस्र धाराओं में प्रसारित बन कर सम्पूर्ण विश्व के समस्त प्राणियों के लिए मंगलमय बन जाती है । वह कोटि-कोटि हृदयों को सुखद स्पर्श देती है तो उनमें सुखद परिवर्तन लाने की प्रेरणा भी । तब समता बाहर और समता भीतर समान रूप से निखर जाती है ।
समता का सीधा सम्बन्ध विषमता से जुड़ता है क्योंकि उसी कारण समता की महिमा है, जैसे अंधकार के कारण प्रकाश की, अज्ञान के कारण ज्ञान की अथवा मृत्यु के कारण जीवन की । यह विषमता सर्वग्राही रूप धारण
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