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समत्व का स्वरूप
जैन साधु ऐसा वीतराग होता हैं कि उसे शत्रु-मित्र . प्रशंसा -निन्दा. हानि-लाभ तथा तृण-सुवर्ण, इनमें समानता दिखाई देती है :
"सत्तु मित्ते य समा पसंसणिदा अलद्धिलद्धिसमा ।
तणकणहसमभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥
'दर्शनपाठ' में ठीक ही कहा गया है कि वीतराग के मुख को देखकर जन्म-जन्मान्तरों के पाप-समूह नष्ट हो जाते हैं । वीतराग से महान देव न तो कभी पैदा हुआ है और न होगा :
"वीतरागमुखं दृष्ट्वा पद्मरागसमप्रभं ।
नैकजन्मकृतं पापं दर्शनेन विनश्यति ॥ वीतरागात् परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥"२
"कम्मुणा बभ्भणो होई "-ब्राह्मण कर्म से ही होता है यह कथन है, महान क्रान्तद्रष्टा महावीर का । मानव-समाज में मनुष्य-मनुष्य में भेद करने की प्रवृत्ति, चिरकाल से चली आई है। कहीं पर यह भेद अमीर-गरीब का है तो कहीं पर ऊँच-नीच का । भारतवर्ष में वर्ण-व्यवस्था ने इस उँच-नीच के भेदभाव को बढ़ाने में निरन्तर सहयोग दिया । परिणाम स्वरूप, मानवसमाज सवर्ण और अवर्ण,दो भागों में बँट गया और अवर्ण निरन्तर सवर्णों द्वारा शोषित होते रहे । इस समस्या से मुक्ति पाने के उद्देश्य से ही कृष्ण ने कहा था कि जो विद्वान और समदर्शी पण्डित होते हैं वे आत्मिक दृष्टि से ब्राह्मण और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी और कुत्ता आदि में कोई भेद नहीं करते :
"विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥"३ स्मृतिकार मनु भी इस बात के समर्थक थे कि वर्ण-व्यवस्था जन्मगत नहीं प्रत्युत कर्मगत होनी चाहिए । उन्होंने स्पष्ट कहा था कि जो ब्राह्मण वेद का अध्ययन नहीं करता है वह उस जन्म में अपने कुल-कुटुम्ब सहित शूद्र हो जाता है :
१. आचार्य कुन्दकुन्द 'बोध पाहुड' ४६. २. दर्शनपाठ, तृतीय तथा चतुर्थ श्लोक । ३. श्रीमद भगवदगीता, ५-१८.
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