________________
समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि अर्थात् - मोह और क्षोभ से रहित आत्म-परिणामरूप समत्व ही धर्म है, और उसी धर्म को सम्यक् चारित्र समझना चाहिए ।
आचार्य अमृतचन्द्र सूरि (ई.दशम शती) ने 'तत्त्वप्रदीपिका-वृत्ति' में उक्त गाथा की टीका करते हुए 'समता' की निम्न परिभाषा की है :
'स्वरूपेऽऽचरणं चारित्रं..., तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः।
तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात् साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्त मोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः ।"
अर्थात्-अपने स्वरूप में आचरण ही वस्तु का स्वभाव होने के कारण धर्म है। वही धर्म साम्य अर्थात् समता है । दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय, इन दोनों कर्मों के उदय से प्राप्त मोह और क्षोभ के अभाव से अत्यन्त निविकार जीव का स्वभाव ही समता है ।
आचार्य जयसेन (ई.द्वादश शती) ने उक्त ग्रन्थ की अपनी 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका में 'सम' का अर्थ 'शम' करते हुए लिखा है -
___ "धर्मो पः स तु शम इति निदिष्टः। स एवं शमो मोहक्षोभविहीनः शुद्धात्मपरिणामो भण्यते, इत्यभिप्रायः ।
सामायिक पाठ में इस समदृष्टि की महिमा इस प्रकार गाई गई है - (१) दुःखे सुखे वैरिविबंधुवर्गे योगे-वियोगे भवने वने वा ।
निराकृता शेषममत्वबुद्धे समं मनोमेऽस्तु सदापि नाथ ॥
अहंकार, आसक्ति, गर्व आदि का त्याग कर तथा त्रस और स्थावर सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति ही सम्यग्दृष्टि है, समतायोगी है -
(२) निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो ।
समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य ॥
१. आ. अमृतचन्द की टीका, पृ. ७-८ । २. आ. जयसेन की टीका, पृ. ७-८ । ३. सामायिकपाठ, श्लोक-३ ४. उत्तराध्ययन अ. १९, गाथा २९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org