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समत्वयोग
और ऐसा व्यक्ति ही निस्संदेह मोक्ष पाता है -
(३) 'समभावभाविअप्पा लाहइ मुक्खं न संदेहो'१
श्रीमद्भगवद्गीता' योगशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। योग की परिभाषा बताते हुए उसमें कहा गया है कि 'समत्व' ही योग है। सिद्धि तथा असिद्धि, इन दोनों में समान भाव ही समत्व है। कृष्ण ने अर्जुन को शिक्षा दी कि हे धनञ्जय ! तू अनासक्त भाव से योग में स्थित होकर कर्म कर --
"योगस्थः करु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
गीता में 'समत्व' को मूर्धन्य प्रतिष्ठा स्थापित करते हुए उसे कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त करने का साधन निरूपित किया गया है - बुद्धिमान् पुरुष पुण्य और पाप, दोनों का परित्याग कर देता है । अतः तू समत्व बुद्धियोग के लिए ही चेष्टा कर। यह समत्व बुद्धियोग ही कर्मों में चतुरता है, अर्थात् कर्म-बन्धन से छूटने का उपाय है।"
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद् योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
१. आचार्य हरिभद्रसूरि २. श्रीमद् भगवद्गीता, २-४८ । ३. श्रीमद् भगवद्गीता, २-५० ।
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