________________
समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि दूसरों का सुख अपना सुख हो जाता है । गीता में कृष्ण कहते हैं, 'है अर्जुन ! जो पुरुष अपने शरीर की तरह सब जगह सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है ।' (६।३२)
'समता' दर्शन और चिन्तन का विषय तो है ही, वह सम्पूर्ण जीवनपद्धति भी है । वास्तव में जीवन की वही पद्धति है । उससे भिन्न पद्धति से न जीवन की सार्थकता संभव है, न जगत की ।
समता को यदि किसी धर्म-विशेष से जोड़ना ही पड़े तो सर्वप्रथम हमारा ध्यान जैन-धर्म की ओर आकर्षित होता है । मानवता का सर्वाधिक चिन्तन, मनन और संरक्षण करने वाला धर्म जैन-धर्म ही दिखाई देता है । समत्व का हर अंग-प्रत्यंग यहाँ भलीभाँति पुष्पित और पल्लवित हुआ
जैन-धर्म, जैन-दर्शन और जैन-संस्कृति समता पर आधारित है । जैसे नींव के ऊपर भव्य प्रासाद का निर्माण हुआ करता है इसी तरह समता की नींव पर जैन-धर्म-दर्शन या जैन-संस्कृति का महल खड़ा हुआ है। जैन संस्कृति की आत्मा समता है । समता के बिना जैन धर्म निष्प्राण है । समता ही इस श्रमण-संस्कृति का मूलाधार है । 'आचारांग' सूत्र में कहा गया है -
“समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइथे"। जब व्यक्ति क्रोधादि कषायों को शमित करता है, जब वह संसार के सब जीवों को अपने समान समझने लगता है तो वह स्वयमेव संब प्रकार के पापों से, क्लेशों से, संघर्षों से बच जाता है; वह अपने आप में अभूतपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है; वह सर्वथा निराकुल और शांत बन जाता है; वह सब द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है । यह द्वन्द्व-मुक्ति ही समता की श्रेष्ठ साधना है। इस तरह समता-दर्शन व्यक्ति के जीवन को दुःखमुक्त बनाता है, निराकुल बनाता है और उसे परम शान्ति प्रदान करता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org