________________
समत्वयोग
प्रथम अध्याय
समत्वयोग
समता का मूलाधार होता है समभाव जो मनुष्य के मन से उपज कर सम्पूर्ण विश्व को अपनी शीतल छाया से ढक लेता है । इसी छाया में व्यक्ति का बाह्य एवं सामाजिक विकास सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता है तो व्यक्ति की अन्तरंग यात्रा इहलोक से परलोक की सीमाओं तक समुन्नत बनती है । सब ओर संशोधन और नव-सर्जन की लहर फैल जाती है । समभाव का विशाल वट-वृक्ष ही समता के लौकिक और अलौकिक स्वरूपों में प्रतिफलित, पल्लवित और पुष्पित होता है ।
क्या होता है ऐसा सुन्दर समभाव ? तीर्थंकरदेवों की उपदेश-धारा में समभाव का सुन्दर कमल खिला हुआ है । सूत्रकृतांग सूत्र (१-१०-६) में भगवान का वचन है कि -
"सव्वं जगं तु समयाणु पेही । पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा ।"
__अर्थात समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है न किसी का अप्रिय । समदर्शी अपने पराये की भेद-बुद्धि से परे हो जाता है । समभाव की साधना को परिपक्व तभी माना गया है जब समग्र विश्व एक और एक-रूपता में दिखाई दे -
इतने एक के उस परिदृश्य में से व्यक्ति ओझल हो जाय । वह किसी एक का प्रियकारी भी नहीं बनेगा और अप्रियकारी भी नहीं, क्योंकि किसी एक. का प्रियकारी किसी दूसरे का अप्रियकारी हो सकता है। अपनी उच्चस्थ श्रेणी में वह समदर्शी हो जायेगा।
समता कोई खेल तमाशा नहीं है, प्रत्युत परमात्मा का साक्षात् स्वरूप है । जिसका मन समता में स्थित हो जाता है, वह यहाँ जीते-जी-ही संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है और परब्रह्म परमात्मा का अनुभव कर लेता है। (गीता ५।१९) यह समता तब आती है जब दूसरों का दुःख अपना दुःख और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org