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पाँचवा अध्याय समन्वय , शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद
यह विश्व अनेक तत्त्वों की समन्विति है । वेदान्त दर्शन ने अद्वैत की स्थापना की पर द्वैत के बिना विश्व की व्याख्या नहीं की जा सकी तो उसे माया की परिकल्पना करनी पड़ी। ब्रह्म को सामने रखकर विश्व के मूल स्रोत की और माया को सामने रखकर उसके विस्तार की व्याख्या की गई। सांख्य-दर्शन ने द्वैत के आधार पर विश्व की व्याख्या की। उसके अनुसार पुरुष चेतन और प्रकृति अचेतन है। दोनों वास्तविक तत्त्व हैं । विश्व की व्याख्या के ये दो मुख्य कोण हैं - अद्वैत और द्वैत । जो दार्शनिक विश्व के मूल स्रोत की खोज में चले, वे चलते - चलते चेतन तत्त्व तक पहुँचे और उन्होंने चेतन तत्त्व को विश्व के मूल स्रोत के रूप में प्रतिष्ठित किया। जिन दार्शनिकों को विश्व के मूल स्रोत की खोज वास्तविक नहीं लगी, उन्होंने उसके परिवर्तनों की खोज की और उन्होंने चेतन और अचेतन की स्वतंत्र सत्ता की स्थापना की । प्रत्येक दर्शन अपनी-अपनी धारा में चलता रहा और तर्क के अविरत प्रवाह से उसे विकसित करता रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि दार्शनिक जगत में शान्ति का अभाव-सा हो गया । पारस्परिक विरोध ही दर्शन का मूल था। हमें यह सोचना चाहिए कि सभी वाद एक-दूसरे के विरोधी हैं, इसका कारण क्या है ? विचार करने पर मालूम पड़ता है कि इस विरोध के मूल में मिथ्या आग्रह है। यही आग्रह एकान्त आग्रह कहा जाता है। दार्शनिक दृष्टि संकुचित न होकर विशाल होनी चाहिए। जितने भी धर्म वस्तु में प्रतिभासित होते हों, उन सबका समावेश उस दृष्टि में होना चाहिए । यह ठीक है कि हमारा दृष्टिकोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशेष भार देता है, किसी समय किसी दूसरे धर्म पर । इतना होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तु में अमुक धर्म है और अन्य कोई धर्म नहीं । वस्तु का पूर्ण विश्लेषण करने पर प्रतित होगा कि वास्तव में हम जिन धर्मों का निषेध करना चाहते हैं, वे सब धर्म वस्तु में विद्यमान हैं । इसी दृष्टि को सामने रखते हुए वस्तु अनन्त धर्मात्मक कही जाती है। वस्तु स्वभाव से ही ऐसी है कि उसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है और अनेक दृष्टियों से विचार करने पर ही वस्तु के यथार्थ ज्ञान या पूर्ण ज्ञान की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। इस दृष्टि का नाम ही अनेकान्तवाद है।
टॉल्सटाय ने कहीं कहा है कि जब मैं जवान था तो मैं सोचता था कि कंसिस्टेंट विचारक ही असली विचारक है, जो बिलकुल सुसंगत बात कहता है। एक चीज कहता है तो उसके विरोध में कभी दूसरी बात नहीं कहता। लेकिन अब जब मैं बूढा हो गया हूँ तो मैं जानता हूँ कि जो सुसंगत है, उसने विचार ही नहीं किया । क्योंकि ज़िन्दगी सारे
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