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समत्व योग एक समन्वय दृष्टि कंट्राडिक्शन से भरी है। जो विचार करेगा, उसके विचार में भी कंट्राडिक्सन आ ही जाएँगे
आ ही जाएँगे । वह ऐसा सत्य नहीं कह सकता, जो एकांगी, पूर्ण और दावेदार हो । उसके प्रत्येक सत्य की घोषणा में भी झिझक होगी। लेकिन झिझक उसके अज्ञान की सूचक बन जायेगी, जबकि झिझक उसके ज्ञान की सूचक है ।
अज्ञानी जितनी तीव्रता से दावा करता है, उतना ज्ञानी के लिए करना बहुत मुश्किल है ।
असल में अज्ञान सदा दावा करता है, दावा कर सकता है। क्योंकि समझ इतनी कम है, देखा इतना कम है, जाना इतना कम है, पहचाना इतना कम है, कि उस कम में वह व्यवस्था बना सकता है। लेकिन जिसने सारा जाना है, और जिन्दगी के सब रूप देखे, उसे व्यवस्था बनानी मुश्किल हो जाती है ।
महावीर के अनेकान्त का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी हैं और सब दृष्टियाँ किसी बड़े सत्य में समाहित हो जाती हैं। और जो बड़े सत्य को जानता है, जो विराट सत्य को जानता है - न वह किसीके पक्ष में होगा, न वह किसीके विपक्ष में होगा । ऐसा व्यक्ति ही निष्पक्ष हो सकता है । यह बड़े मजे की बात है कि सिर्फ अनेकान्त की जिसकी दृष्टि हो, वही निष्पक्ष हो सकता है - समत्व प्राप्त कर सकता है ।
९. अनेकान्त का अर्थ
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अब अनेकान्त शब्द पर विचार करें। अनेकान्त शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, एक 'अनेक' शब्द, दूसरा 'अन्त' शब्द । अन्त शब्द की व्युत्पत्ति 'रत्नाकरावतारिका' में इस प्रकार की गई है :
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'अम्यते ' गम्यते - निश्चीयते इति अन्तः धर्मः । न एक: अनेक: अनेकश्चासौ अन्तश्च इति" अनेकान्तः - वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को मानना अनेकान्त है ।
अनेकान्त को स्याद्वाद भी कहा जाता है। " स्यात्" अनेकान्त द्योतक अव्यय है।
१. " अम् गत्यादिषु" ग्वादिगणं ।
२. रत्नाकरावतारिका पृ. ८९ ।
३. अष्टसहस्री, पृ. २८६ । आत्ममीमांसा, श्लोक १०३ । पंचास्तिकाय गाथा १५ | अमृतचन्द्रसूरि की
टीका पृ. ३० ।
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