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समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक
जो समो सव्व भूदेसु तसेसुथादरेसु य ।
तस्स सामाइयं होय इइ केवलिभासियं ।' (जो साधक त्रस और स्थावर रूपी जीवो के प्रति समभाव रखता है उसका सामायिक शुद्ध होता है। ऐसा केवली भगवन्तो ने कहा है।) हरिभद्र सूरि ने ‘पंचाशक' ग्रंथ में लिखा है -
समभावो सामाइयं तण-कंचण सत्तु मित्त विसओत्ति ।
णिरभिस्संग चित्तं उचियपवित्तिप्पदाणं च ॥ . (समभाव ही सामायिक है। तृण हो या सोना, शत्रु हो या मित्र । सर्वत्र चित्त को आसक्ति रहित रखना और पाप रहित उचित प्रवृत्तियाँ करते रहना सामायिक है।)
प.पू स्व. भद्रंकर विजयजी गणिवर्य ने लिखा है कि सामायिक का परम रहस्य यह हैं कि प्रत्येक जीव प्रति आत्मवत् द्रष्टि रखना । अपने आपको सुख अच्छा लगता है और दुःख अच्छा नहीं लगता । ऐसे ही जीव मात्र को सुख इष्ट है दु:ख अनिष्ट है। इसलिए किसी के भी दु:ख का निमित्त न बनना चाहिए। किसी भी जीव को तनिक भी दुःख पहुंचाने के साथ साथ ही अपने मन को आघात लगे यही सामायिक धर्म की परिणति का लक्षण है।
आत्मा में विश्व व्यापी विशालता को प्रगट करने का साधन है सामायिक । इससे स्वार्थ सबंध दूर होकर सर्व के प्रति आत्मीय भाव प्रगट होता हैं । स्व संरक्षणवृत्ति का सर्वसंरक्षण प्रवृत्ति में परिवर्तन करने का स्तुत्य प्रयोग ही सामायिक है। विश्व के जीवों के हित की उपेक्षा कर कोई आत्मा सामायिक में नहीं रह सकता।
जीवन में समता, समत्व अनासक्ति सहजता से उपलब्ध नहीं होते । पूर्व संस्कारो का और पूर्व के शुभ कर्मों का उदय इसमें निमित्त बनते हैं। लेकिन उसके साथ साथ अप्रमत्त पुरुषार्थ भी अनिवार्य होता है । जीवन में समता का प्रवेश हो इस लिए संयम, शुभ भावना तथा आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग अनिवार्य है । जव तक जीव असंयमित हो, जब तक अशुभ भावों की गति विधि कर्मरत हो, जब तक आर्त और रौद्र ध्यान वार्त्त पाला जाता हो तब तक जीवन में समता का प्रवेश नही होता।
श्री हरिभद्रसूरिने सामायिक के लक्षणों में संयम का भी खास निर्देश किया हैं। मन अत्यन्त चंचल होता है। पंचेन्द्रियों के भोगोपभोग के विषय भी अनेकानेक होते हैं। जबतक १. आव. नियुक्ति ७६६ २. आचार्य हरिभद्र. पंचाशक. ११/५
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