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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि सामायिक अच्छा मौका देता है । इसी लिए ही सामायिक पुन: पुन: करने का शास्त्रकारों ने सूचन किया है। सामायिक द्वारा स्थूल पृष्ट भाग पर की समता से ऐसी सूक्ष्मतम, उच्चतम, आत्मानुभूति तक पहुंच जाता है कि जीव संसार और मुक्ति को 'सम' मानने लगता है। श्री आनंदघनजी महाराज ने सोलहवें श्री शांतिनाथ भगवान-स्तवन मे कहा है -
मान अपमान चित्त सम गणे,
सम गणे कनक पाषाण रे; वंदक निंदक सम गणे,
इस्यो होये तुं जाणे रे, सर्वजंतुने सम गणे,
समगणे तृण मणि भाव रे; मुक्ति संसार बेउ सम गणे,
मुणे भवजलनिधि नाव रे, आपणो आतम भाव जे,
एक चेतना धार रे; अवर सवि साथ संजोगथी,
एह निज परिकर सार रे. (मान अपमान, कनक पाषाण, वंदक निदंक को जो सम मानता है उसे तू आदर्श रूप मान ले । सर्व जंतुओं को जो सम मानता है, तृण मणि भाव को जो सम मानता है, मुक्ति संसार को जो सम मानता है वह भवजलनिधि में नाव पार कर जाता है । अपना आत्मभाव वही चेतनाधार है । दूसरा सब संयोगवशात् मिलता हैं । यही अपने परिकर का सार है।)
मुक्ति और संसार इन दोनों को जो सम मानता है वह समता का आदर्श है। वह सूक्ष्म चेतनाधार अनुभवगोचर है लेकिन उसका शब्दो में वर्णन अशक्य है। महात्माओं ने ऐसी समता की महिमा का भिन्न भिन्न प्रकार से वर्णन किया है।
निंदा प्रसंसासु समो य भाणावसाग दारीसु ।
सम समण परजणमणो सामाइ संगओ जीवो ॥ - (निंदा या प्रशंसा में, मान या अपमान करनेवालों के प्रति, स्वजन या परजन के सबंधों में जो समान मन रखता है (समता का शुभ भाव रखता है) उस जीव को सामायिक संगी मान लेना ।)
'आवश्यक नियुक्ति' में भद्रबाहु स्वामी ने कहा है :
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