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समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक
१७३ इसी लिए कहा गया है कि:
जे केवि गया मोक्खं जे विय गच्छन्ति जे गमिस्सन्ति ।
ते सव्वे सामाइय माहप्पेणं मुणेयव्वा ॥ (जिन लोगों को मोक्षप्राप्ति हुई है, जो लोग अभी मोक्षप्राप्ति कर रहे हैं और जिन लोगों को मोक्षप्राप्ति होगी, सभी को सामायिक के प्रभाव से ही यह सब मिला है । श्री भगवती अंग में भी कहा गया है : ..
किं तिव्वेण तवेणं किं च जवेणं किं च चरित्तेणं ।
समयाइ विण मुक्खो न हु हुओ कहवि न हु होइ ॥ (जितना भी तीव्र तप करे, जप जपे और चारित्र्य का (प्रत्य चारित्र का) ग्रहण करे किन्तु समता के बिना (उत्कृष्ट भाव से भरे हुए सामायिक के बिना) किसी का मोक्ष हुआ नहीं है, होता नहीं है और होने वाला भी नहीं ।)
(३) समता सामायिक का प्राण हैं - सम का अर्थ है समान । समता और समत्व का अर्थ है समानता के भाव का अनुभव करना । मनुष्य-चित्त में पसंद और अपसंद भाव सतत प्रमाण रहते हैं। प्रिय चीजें, व्यक्ति, संयोग मानवी को अच्छे लगते हैं और अप्रिय नहीं लगते। सफलता अच्छी लगती है, निष्फलता अच्छी नहीं लगती । लाभ या मुनाफा अच्छा लगते हैं, गैर लाभ या हानि अच्छे नहीं लगते। लेकिन जो भी व्यक्ति ऐसे भिन्न भिन्न प्रसंगो में हर्ष-शोक से पर हो सकते हैं वे समता अनुभव कर सकते हैं । अच्छा लगना वह राग है। अच्छा नहीं लगना अथवा तिरस्कार वह द्वेष है। व्यक्ति ज्यों द्वेष से परे हो जाता है त्यों राग से भी उसे परे हो जाना चाहिए। हम सोचते हैं इतना यह सरल नहीं है। जब तक ममत्व है तब तक राग है। दुनिया के सभी पदार्थों को और संबंधो को छोड देने के बाद भी मनुष्य को अपनी काया के लिए राग रहता है और काया में दाखिल हुई व्याधियों के लिए दुर्भाव रहता है। आखिर काया से भी परे हो जाना और शुद्ध आत्मोपयोग द्वारा पदार्थों को, अनुभवों को तटस्थ भाव से देखना यही समत्व की सूक्ष्म साधना है।
एक बार चित्तने समता भाव का अनुभव किया इससे वह वहाँ स्थाई रूप से रहेगा ऐसा स्वीकार कर लेने की कोई जल्दी नहीं करनी चाहिए। स्वस्थ और सुखद संयोगों में समता भाव का अनुभव या आभास होता है किन्तु विपरीत संयोगों में ही समता भाव की कसोटी होती है । उस समय भी पुरुषार्थ से प्राप्त किया हुआ समता भाव अधिक समय तक टीका रहे वैसा प्रयत्न करना चाहिए। उसके लिए अभ्यास और परुषार्थ आवश्यक हैं। ऐसी शिक्षा के लिए
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