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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि सम्यग्ज्ञान वह बेटरी है, जो अन्धकार में भटकते पथिक को मार्ग प्रदर्शित करती है। यह वह सूर्य है, जो आत्मारूपी विश्व के अन्धकार को दूर करता है, यह वह नन्हा बालक है, जो कितने ही अन्ध पुरुषों को सन्मार्ग पर लगा देता है। जो इस मन्त्र की आराधना कर लेता है, उसे यह दृढ़ श्रद्धा द्वारा चारित्र रूपी सुपथ पर चला कर मोक्ष रूपी महल में विश्राम के लिए पहुंचा देता है। वहाँ उसे सांसारिक जन्म - मरण तथा सुख-दुःख से छुटकारा मिल जाता है। वहाँ उसे उस परम शान्ति की प्राप्ति होती है जो कभी जा नहीं सकती।
सम्यक् चारित्र का अर्थ तथा महत्व
सम्यक् दर्शन और सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधक को सम्यक् चारित्र का परिपालन करना पड़ता है। सम्यक्चारित्र के बिना उसका दर्शन और ज्ञान निरर्थक है। तीनों का समन्वयात्मक रूप ही मुक्ति का मार्ग है। सम्यक्त्व रहित को ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के बिना चारित्र के गुण नहीं आते । चारित्र रहित को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और बिना मुक्त हुए निर्वाण प्राप्त नहीं होता। समस्त पाप क्रियाओं को छोड़कर पर पदार्थों में राग-द्वेष को दूर कर, उदासीन और माध्यस्थ्य भाव की अङ्गीकृति सम्यग्चारित्र है।'
___ सम्यग्चारित्र दो प्रकार का है - एक सर्वदेशविरति अथवा महाव्रत जिसे मुनि पालन करता है और दूसरा एकदेशविरति अथवा अणुव्रत जिसे श्रावक ग्रहण करता है। मुनि व श्रावक के लिए बारह प्रकार के व्रत निर्दिष्ट हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, दिव्रत, देवव्रत
और अनर्थदण्डव्रत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपयोगपरिमाण और अतिथिसंविभागवत । श्रावक इन बारह अणुव्रतों को पालता हुआ आध्यात्मिक उत्कर्ष करता जाता है और तदर्थ वह दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभोजनत्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग एवं उद्दिष्ठत्याग इन ग्यारह प्रतिज्ञाओं का क्रमश: यथाशक्ति पालन करता है। इन्हें प्रतिमा कहा गया है।
१. षट् प्राभृत ६५ २. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः, तत्त्वार्थसूत्र १.१ ३. उत्तराध्ययन २८.३० ४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय ३०
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