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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
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जैन विचारणा में कहा गया है कि प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करना चाहिए; तर्क से तत्त्व का विश्लेषण करना चाहिए। ' लेकिन तार्किक या बौद्धिक ज्ञान भी अंतिम नहीं है। तार्किक ज्ञानजब तक अनुभूति से प्रमाणित नहीं होता वह पूर्णता तक नहीं पहुँचता है। तर्क या बुद्धि को अनुभूति का सम्बल चाहिए। दर्शन परिकल्पना है, ज्ञान प्रयोग विधि है और चारित्र प्रयोग है। तीनों के संयोग से सत्य का साक्षात्कार होता है। ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है। ' सत्य जब तक स्वयं के अनुभवों में प्रयोगसिद्ध नहीं बन जाता, तब तक वह सत्य नहीं होता। सत्य तभी पूर्ण सत्य होता है जब वह अनुभूत हो। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि ज्ञान के द्वारा परमार्थ का स्वरूप जानें, श्रद्धा के द्वारा स्वीकार करें, और आचरण के द्वारा उसका साक्षात्कार करे । यहाँ साक्षात्कार का अर्थ है सत्य, परमार्थ या सत्ता के साथ एकरस हो जाना । ज्ञान तो दिशा-निर्देश करता है, साक्षात्कार तो स्वयं करना होता है, साक्षात्कार की यही प्रक्रिया आचरण या चारित्र है ।
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सम्यक् चारित्र का अर्थ है चित अथवा आत्मा की वासनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना । यह अस्थिरता या मलिनता स्वाभाविक नहीं वरन् वैभाविक है, बाह्यभौतिक एवं तज्जनित आन्तरिक कारणों से है। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ इस तथ्य को स्वीकार करती हैं । समयसार में कहा है कि तत्त्व दृष्टि से आत्मा शुद्ध है। भगवान बुद्ध भी कहते हैं कि भिक्षुओं ! यह चित्त स्वाभाविक रूप में शुद्ध है। * गीता भी उसे अविकारी कहती है। ' आत्मा या चित्त की जो अशुद्धता है, मलिनता है, अस्थिरता या चंचलता है, वह बाह्य है, अस्वाभाविक है । जैन-दर्शन उस मलिनता के कारण को कर्ममल मानता है, गीता उसे त्रिगुण कहती है और बौद्धदर्शन
बाह्य कहा गया है । स्वभावतः नीचे की ओर बहने वाला पानी दबाव से ऊपर चढ़ने लगता है, स्वभाव से शीतल जल अनि के संयोग से उष्णता को प्राप्त हो जाता है । इसी प्रकार आत्मा या चित्त स्वभाव से शुद्ध होते हुए भी त्रिगुणों, कर्मों या बाह्य मलों से अशुद्ध बन जाती है। लेकीन जैसे ही दबाव समाप्त होता है पानी स्वभावतः नीचे की ओर बहने लगता है, अनि का संयोग दूर होने पर जल शीतल होने लगता है। ठीक इसी प्रकार बाह्य संयोगों से अलग होने पर यह आत्मा या चित्त पुनः अपनी स्वाभाविक समत्वपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो जाता है। सम्यक् आचरण
१. उत्तराध्ययन २३/२५
२. आचारांगनिर्युक्ति, २४४
३. समयसार, १५१
४. अंगुत्तरनिकाय, १/५/८ ५. गीता, २ / २५
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