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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
१४९ मन:पर्यायज्ञान का अर्थ है मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जानने वाला ज्ञान । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय-विशेष का विचार करता है, तब उसके मन का तदनुसार पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है। मन:पर्यायज्ञानी मन के इन पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस पर से वह यह जान सकता है, कि अमुक व्यक्ति किस समय क्या बात सोचता रहा है। अत:मनपर्यायज्ञान का अर्थ है - मन के परिणमन का साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना । मन:पर्यायज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर होता है। क्योकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा मन के अति सूक्ष्म परिणामों को भी जान सकता है। दूसरी बात यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती होता है और विपुलमति अप्रतिपाती होता है। यही इन दोनों में अन्तर है।
अवधिज्ञान और मन:पर्यायज्ञान प्रत्यक्ष अवश्य है, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सीधे आत्मा से ही होते हैं, इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती। किन्तु अवधिज्ञान
और मन:पर्याय ज्ञान दोनों ही विकल प्रत्यक्ष है, जबकि केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष होता है। अवधि ज्ञान केवल रूपी पदार्थों को ही प्रत्यक्ष कर सकता है और, मन:पर्यायज्ञान रूपी पदार्थों के अनन्तवें भाग मन के पर्यायों को ही प्रत्यक्ष कर सकता है। इसलिए ये दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं।
पाँच ज्ञानों में पाचवाँ ज्ञान है - केवलज्ञान । यह ज्ञान विशुद्धतम है। केवलज्ञान को अद्वितीय और परिपूर्ण ज्ञान भी कहा जाता है। आगम की भाषा में इसे क्षायिक ज्ञान कहा जाता है। आत्मा की ज्ञान-शक्ति का पूर्ण विकास अथवा अविर्भाव केवलज्ञान है। इसके प्रकट होते ही, फिर शेष ज्ञान नहीं रहते। केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान है, अत: उसके साथ मति आदि अपूर्ण ज्ञान नहीं रह सकते । जैन दर्शन के अनुसार केवलज्ञान आत्मा की ज्ञानशक्ति का चरम विकास है। केवल से बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं होता है। इस ज्ञान में अतीत, अनागत और वर्तमान के अनन्त पदार्थ
और प्रत्येक पदार्थ के अनन्त गुण और पर्याय केवलज्ञान के दर्पण में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। केवल ज्ञान देश और काल की सीमा-बन्धन से मुक्त होकर रूपी एवं अरूपी समग्र अनन्त पदार्थों को प्रत्यक्ष करता है। अत: उसे सकल प्रत्यक्ष कहते हैं।
अत: निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि भारतीय परम्परा में सम्यग्ज्ञान, विद्या अथवा प्रज्ञा के जिस रुप को आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन के लिए आवश्यक माना गया है, वह मात्र बौद्धिक ज्ञान नहीं है। वह तार्किक विश्लेषण नहीं, वरन एक अपरोक्षानुभूति है । बौद्धिक विश्लेषण परमार्थ का साक्षात्कार नहीं करा सकता, इसलिए यह माना गया कि बौद्धिक विवेचनाओं से ऊपर उठकर ही तत्त्व का साक्षात्कार सम्भव है।
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