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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि
पाँच ज्ञानों में दूसरा ज्ञान है श्रुतज्ञान। श्रुतज्ञान क्या है यह अतीव विचारणीय प्रश्न है। मतिज्ञानोत्तर जो चिन्तन मनन के द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। इसका यह अर्थ है कि इन्द्रिय एवं मन के निमित्त से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है, उसका पूर्वरूप मतिज्ञान है, और उसी का मन के द्वारा मनन होने पर जो अधिक स्पष्ट उत्तर रूप होता है, वह श्रुतज्ञान है। यह श्रुतज्ञान का दार्शनिक विश्लेषण है । प्राचीन आगम की भाषा में श्रुतज्ञान का अर्थ है: वह ज्ञान, जो श्रुत से अर्थात् शास्त्र से सम्बद्ध हो । आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है, उसे श्रुत - ज्ञान कहते हैं । श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। श्रुतज्ञान में अन्य ज्ञानों की अपेक्षा एक विशेषता है। चार ज्ञान मूक हैं, जब कि श्रुतज्ञान मुखर है। चार ज्ञानों से वस्तु स्वरूप का परिबोध तो हो सकता है, किन्तु वस्तु स्वरूप का कथन नहीं हो सकता। वस्तु स्वरूप के कथन की शक्ति श्रुतज्ञान में ही होती है। क्योंकि श्रुतज्ञान शब्दप्रधान होता है। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- द्रव्यश्रुत और भावश्रुत श्रुत का ज्ञानात्मक रुप भावश्रुत है और शब्दात्मक रूप द्रव्य श्रुत है। यहाँ एक प्रश्न होता है कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक क्यों होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि श्रुतज्ञान के लिए शब्दश्रवण आवश्यक है, क्योंकि शास्त्र वचनात्मक होता है। शब्द का श्रवण मतिज्ञान है, क्योंकि वह श्रोत्र का विषय है। जब शब्द सुन लिया जाता है, तभी उसके अर्थ का चिन्तन किया जाता है। शब्दश्रवण रूप जो ज्ञान है, वह मतिज्ञान है, उसके बाद उत्पन्न होने वाला विकसित ज्ञान श्रुतज्ञान होता है। इसी आधार पर यह कहा जाता है, कि मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान उसका कार्य है। मतिज्ञान होगा, तभी श्रुतज्ञान होगा। यहाँ पर एक बात और समझने योग्य है कि श्रुतज्ञान का अन्तरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षमोपशम ही है। मतिज्ञान तो उसका बहिरंग कारण है, इसी कारण कहा जाता है कि श्रुतज्ञान से पूर्व मतिज्ञान होता है अर्थात् मतिज्ञान के होने पर ही श्रुतज्ञान हो सकता है।
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पाँच ज्ञानों में तीसरा ज्ञान है - अवधिज्ञान । अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है। अवधिज्ञान रूपी पदार्थों का होता है। अवधिज्ञान क्या है ? इसके सम्बन्ध में कहा गया है, कि अवधि का अर्थ है - सीमा। जिस ज्ञान की सीमा होती है, उसे अवधिज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान की सीमा क्या है ? रूपी पदार्थों को जानना । अवधिज्ञान के दो भेद हैं- भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय | भव प्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है। गुण प्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्च को होता है। जो अवधिज्ञान बिना किसी साधना के मात्र जन्म के साथ ही प्रकट होता है, उसे भव प्रत्यय कहते हैं। जो अवधिज्ञान किसी साधना-विशेष से प्रकट होता है, उसे गुण प्रत्यय कहा जाता है।
पाँच ज्ञानों में चौथा ज्ञान है - मन: पर्यायज्ञान। यह ज्ञान मनुष्य गति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं होता है; मनुष्य में भी संयत मनुष्य को ही होता है, असंयत मनुष्य को नहीं ।
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