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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय स्वरूप को भी जान लेता है। पुण्य, पाप, बंधन और मोक्ष के स्वरूप को जानने पर साधक भोगों की निस्सारता को समझ लेता है और उनसे विरक्त (अनासक्त) हो जाता है। भोगों से विरक्त होने पर बाह्य और आन्तरिक संसारिक संयोगो को छोड़कर मुनिचर्या धारण कर लेता है। तत्पश्चात् उत्कृष्ट संबर (वासनाओं के नियन्त्रण) से उत्तम धर्म का आस्वादन करता है, जिससे वह अज्ञानकालिमा - जन्यकर्ममल को झाड़ देता है और केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर तदन्तर मुक्ति-लाभ कर लेता है। उत्तराध्ययन सूत्र में ज्ञान का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि ज्ञान अज्ञान एवं मोहजन्य अन्धकार को नष्ट कर सर्व तथ्यों (यथार्थता) को प्रकाशित करता है। २ सत्य के स्वरूप को समझने का एकमेव साधन ज्ञान ही है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, ज्ञान ही मनुष्य-जीवन का सार है। व्यक्ति आस्रव, अशुचि, विभाव और दुःख के कारणों को जानकर ही उनसे निवृत्त हो सकता है।
बौद्ध-साधना में जैन - साधना के समानही अज्ञान को बंधन का और ज्ञान को मुक्ति का कारण कहा गया है। सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं, अविद्या के कारण ही (लोग) बारम्बार जन्म - मृत्यु रूपी संसार में आते हैं, एक गति से दूसरी गति को प्राप्त होते हैं। बौद्ध धर्म में इसी सम्यग्ज्ञान को प्रज्ञा कहा है। धर्म के स्वभाव का विशिष्ट ज्ञान प्रज्ञा है - धम्मसभावपरिवेधलक्खणा पञ्जा। मोहान्धकार का नाश करना इसका कृत्य है। यहाँ प्रज्ञावान साधक की स्थिति को बड़े सुन्दर ढंग से बुद्धघोष ने समझाने का प्रयत्न किया है। जिस प्रकार एक अबोध बालक कार्षापण को उपभोग - परिभोग का साधन न मानकर एक चित्र-विचित्र रूप मात्र मानता है, ग्रामीण व्यक्ति उक्त दोनों बातों को जानता है पर यह नहीं जानता कि यह कार्षापण खोटा है अथवा चोखा है, परन्तु एक हेरम्भिक (सराफ) उन समी प्रकारों को जानता है। रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श से संयुक्त अथवा पृथक रूप से कार्षापण के गुण - अवगुण को सही रूप में समझता है। प्रज्ञावान भी ऐसा ही होता है। वह विशिष्ट रूप से विशिष्ट आकार को विविध प्रकार से जानता है। जिस व्यक्ति में प्रज्ञा होती है वही निर्वाण के समीप होता है।
भगवद् गीता की दृष्टि में ज्ञान मुक्ति का साधन है और अज्ञान विनाश का। गीताकार का कथन है कि अज्ञानी, अश्रद्धालु और संशययुक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है। जबकि ज्ञानरूपी
१. दशवैकालिक, ४/१४ - २७। २. उत्तराध्ययन, ३२/२. ३. दर्शन पाहुड, ३१. ४. समयसार, ७२. ५. सुत्तनिपात, ३८/६. ६. विसुद्धिमग्ग १४, पृ०. ३०५,. ७. विसुद्धिमग्ग, १४ पृ. ३०८. ८. धम्मपद ३७२ ९. भगवद्गीता ४/४०
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