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________________ १४६ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि नौका का आश्रय लेकर पापी से पापी व्यक्ति पापरुपी समुद्र से पार हो जाता है। ज्ञान-अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है। इस जगत में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ नहीं अध्यात्म-शास्त्र में सम्यक् आत्म-बोध को ही वस्तुत: सम्यक् ज्ञान कहा जाता है। और यह सम्यक् आत्म-बोध तभी सम्भव है, जबकि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी हो अत: अध्यात्म-शास्त्र में सम्यक् दर्शन का सहभावी ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान कहा जाता है । ज्ञान आत्मा का एक गुण है उसके दो पर्याय हैं - सम्यक् ज्ञान और मिथ्यज्ञान। सम्यक् ज्ञान उसका शुद्ध पर्याय है और मिथ्यज्ञान उसका अशुद्ध पर्याय है। सम्यक् दर्शन के सद्भाव और असद्भाव पर ही यह शुद्धता और अशुद्धता निर्भर है। प्रश्न होता है, कि ज्ञान उत्पन्न कैसे होता है ? जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान और ज्ञेय दोनों स्वतन्त्र है। ज्ञेय तीन प्रकार का होता है - द्रव्य, गुण और पर्याय । जहाँ तक ज्ञान की उत्पत्ति का प्रश्न है, जैन दर्शन के अनुसार यह कहा जा सकता है, कि न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञेय ज्ञान से। हमारा ज्ञान ज्ञेय को जानता है, ज्ञेय से उत्पन्न नहीं होता है। ज्ञान आत्मा में अपने गुण स्वरूप से सदा अवस्थित रहता है और पर्याय रूप से प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। शास्त्र में ज्ञान के पाँच भेद माने गये हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन :पर्यायज्ञान और केवलज्ञान । ४ इन पाँच ज्ञानों के सम्बन्ध में मूलत: किसी प्रकार का विचार-भेद न होने पर भी इनके वर्गीकरण की पद्धति अवश्यक भिन्न-भिन्न प्रकार की रही है। आगम काल से आगे चलकर प्रमाणशास्त्र में ज्ञान के भेद-प्रभेद का जो कथन किया गया है, वह वस्तुत: तर्क-विकास का प्रतीक है। जब हम दर्शनशास्त्र का अध्ययन करते हैं, तब ज्ञात होता है, कि मूल में ज्ञान के जो पाँच भेद हैं, उन्हीं को दर्शन-शास्त्र एवं प्रमाण-शास्त्र में तर्कानुकूल बनाने का प्रयत्न किया गया है। परन्तु इस प्रयत्न में मूल मान्यता में किसी भी प्रकार की गड़बड़ नहीं हुई है। आगम-शास्त्र में ज्ञान के सीधे जो पाँच भेद किये गए हैं , उन्हीं को दर्शन-शास्त्र में दो भागों मे विभाजित कर दिया है - प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण । प्रमाण के इन दो भेदों में ज्ञान के समस्त भेदों का समावेश कर दिया गया है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना गया है तथा अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है। १. गीता, ४/३६ २. गीता, ४/३७ ३. गीता ४/३८ ४. मतिश्रतावधिमन:पर्यायकेवलानि ज्ञानम अ. १ सत्र १-९ तत्त्वार्थ सत्र. उमास्वाति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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