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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि सम्यग्ज्ञान का अर्थ तथा महत्त्व: दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्ता निर्भर करती है। अत: जैन साधना का दूसरा चरण है सम्यक्ज्ञान । सम्यक्ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन सा ज्ञान मुक्ति के लिये आवश्यक है, यह विचारणीय है।
अनादिकाल से यह जीव मोहनीय कर्म के उदय से संसार में संचरण कर रहा है और सम्यक्ज्ञान के बिना उसका तप निरर्थक - सा हो रहा है। परन्तु जिस प्रकार सुहागे और नमक के जल से संयुक्त होकर स्वर्ण विशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान रूपी निर्मल जल से यह जीव भी शुद्ध हो जाता है।
'जह कचर्णं विसुध्द धम्मइयं खडियलवणलेवेण ।
तह जीवो वि विसुध्दो णाणविसलितेण विमलेण ।' जीव और अजीव के पार्थक्य को समझना ही सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञानी, राग, द्वेष, मोह आदि दोषों से रहित हो जाता है। इस अवस्था में उसे त्रिकालवर्ती पदार्थ युगपत् प्रतिबिम्बित होने लगते हैं। यही युगपत् प्रतिबिम्बित योगीजनों का लोचन है।
जैन-साधनामार्ग में प्रविष्ट होने की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति अपने अज्ञान अथवा अयथार्थ ज्ञान का निराकरण कर सम्यक् (यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करे। साधना मार्ग के पथिक के लिए जैन ऋषियों का चिर सन्देश है कि प्रथम ज्ञान और तत्पश्चात् अहिंसा का आचरण; संयमी साधक की साधना का यही क्रम है। साधक के लिए स्व-परस्वरूप का भान, हेय और उपादेय का ज्ञान और शुभाशुभ का विवेक साधना के राजमार्ग पर बढ़ने के लिए आवश्यक है। उपर्युक्त ज्ञान की साधनात्मक जीवन के लिए क्या आवश्यकता है इसका क्रमिक और सुन्दर विवेचन दशवैकालिक सूत्र में मिलता है। उसमें आचार्य लिखते हैं कि जो आत्मा और अनात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है ऐसा ज्ञानवान साधक साधना (संयम) के स्वरूप को भलीभाँति जान लेता है, क्योंकि जो आत्मस्वरूप और जड़स्वरूप को यथार्थ रूपेण जानता है, वह सभी जीवात्माओं के संसार - परिभ्रमण रूप विविध (मानव, पशु - आदि) गतियों को जान भी लेता है और जो इन विविध गतियों को जानता है, वह (इस परिभ्रमण के कारण रूप)पुण्य, पाप, बन्धन तथा मोक्ष के
१. षट प्राभृत ६.९ २. षट प्राभृत २.३८ ३. ज्ञानार्णव ७.२ ४. पढमं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। - दशवैकालिक, ४/१० (पूर्वार्ध)
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