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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि आचार में बदलो, तभी साधना परिपूर्ण होगी। चारित्र, अथवा आचार का अर्थ केवल बाह्य क्रिया काण्ड ही नहीं है। बाह्य क्रिया-काण्ड तो अनन्त काल से और अनन्त प्रकार का किया गया है, किन्तु उससे लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकी। बाह्य क्रिया-काण्ड अध्यात्म-साधना में यथावसर उपयोगी एवं सहायक तो हो सकता है, किन्तु वही सब कुछ नहीं है। सम्यक् चारित्र आत्मस्थिति रूप है, अत: वह आत्मरूप है, अन्य रूप नहीं।
सम्यक् दर्शन मिथ्या ज्ञान को भी सम्यक् ज्ञान बना देता है। आकाश में स्थित सूर्य जब मेघों से आच्छन्न हो जाता है, तब यह नहीं सोचना चाहिए कि अब अनन्त गगन में सूर्य की सत्ता नहीं रही। सूर्य की सत्ता तो है, किन्तु बादलों के कारण उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। परन्तु जैसे ही सूर्य पर छाने वाले बादल हटने लगते हैं, तो सूर्य का प्रकाश और आतप एकसाथ गगन मण्डल
और भूमण्डल पर फैल जाता है। ऐसा मत समझिए कि पहले प्रकाश आता है फिर आतप आता है अथवा पहले आतप आता है फिर प्रकाश आता है। दोनों एकसाथ ही प्रकट होते हैं। इसी प्रकार ज्यों ही सम्यक् दर्शन होता है, त्यों ही तत्काल ही सम्यक् ज्ञान हो जाता है। उन दोनों के प्रकट होने में क्षणमात्र का भी अन्तर नहीं रह पाता । सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान चतुर्थ गुणस्थान में प्रकट हो जाते हैं। किन्तु सम्यक् चारित्र की उपलब्धि पाँचवे गुणस्थान से प्रारम्भ होती है। वैसे तो अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षयोपशमादि की दृष्टि से मोह-हीनता एवं स्वरूप-रमणता रूप चारित्र अंशत: सम्यग् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञान के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन ही परिपूर्णता अधिकतम सातवें गुणस्थान तक हो जाती है और ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है तथा चारित्र की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान के अन्त में एवं शैलेशी अवस्था रूप चौदहवें गुण स्थान में होती है। जैनदर्शन के अनुसार उक्त तीनों साधनों की परिपूर्णता का नाम ही मोक्ष एवं मुक्ति है । यही अध्यात्मजीवन का चरम विकास है।
२. सम्यक् दर्शन का अर्थ तथा महत्त्व सम्यक् दर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है। जिस गुण अर्थात् शक्ति के विकास से तत्त्व अर्थात् सत्य की प्रतीति हो, अथवा जिससे हेय (छोड़ने योग्य) एवं उपादेय (ग्रहण करने योग्य) तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो वह सम्यग्दर्शन है। इसे मुक्ति का अधिकार-पत्र भी कहा गया है।
संसार की वस्तुओं को, विश्व के द्रव्यों को देखने के दो दृष्टिकोण हैं : (१) सम्यग्दर्शन (२) मिथ्यादर्शन । सम्यग्दर्शन में आत्मा की पवित्रता प्रथम ध्येय होता है और जीवन का व्यवहार गौण होता है, किन्तु मिथ्यादर्शन में संसार का सुख-वैभव प्राप्त करना मुख्य ध्येय होता है और आत्मा, ईश्वर आदि आध्यात्मिक बातों के प्रति उपेक्षा होती है। सम्यक्त्व जीव की वह दशा है जिससे वह
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