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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि (२३) मकड़ी,
(२४) भुंगी। ____ वास्तव में, मैंने इन २४ गुरुओं को इनमें निहित गुणों को देखकर उनके गुणों पर चिन्तन करके अपने जीवन में इन गुणों को उतारने का प्रयत्न किया है, इसी कारण मैं बहुत ही आनन्द में रहता हूँ। संक्षेप में - पृथ्वी से मैंने क्षमा का गुण, हवा से सुगन्ध - दुर्गन्ध से निर्लिप्त - अनासक्त होकर बहने का गुण, आकाश से निर्लेप और निर्मल रहने का, जल से दूसरे की गन्दगी को साफ करने का, अग्नि से पाप की राख बनाने का, चन्द्रमा से सदैव एकरस बने रहने का, सूर्य से मोह रहित कार्य करने का, अजगर से मृत्यु उपस्थित रहते जागृत रहने का, समुद्र से गम्भीरता का, पतंगा से परमात्मा में अपने को सर्वथा समर्पण का, भौरे से पुष्पसुगन्ध की तरह गुण-सुगन्ध लेने का, हाथी से यथालाभ सन्तोष का, मधुमक्खी से अपने संग्रह को दूसरों के लुटा देने का, मृग से श्रवणेन्द्रियवश होकर संगीत पर आसक्ति न रखने का, मीन से रसनेन्द्रियवश होकर खाद्य पदार्थ पर आसक्ति न रखने का, पिंगला से द्रव्यलोलुपता से दूर रहने का, चील से सांसारिक पदार्थों की आसक्ति छोडकर आध्यात्मिक गगन में उड़ने का, बालक से सरलता - निश्चलता का, कन्या से एक चूड़ी हाथ में रखने की तरह एकाकी विचरण करने का, साँप से स्वगृह रहित होकर रहने का, मकड़ी से संसारजाल में न फँसने का, तथा भंगी से ध्यान में प्रभु के साथ एकतान होने का गुण ग्रहण किया, प्रेरणा और शिक्षा ली। वास्तव में समतायोगी में जब प्रमोदभावना का इतना अधिक विकास हो जाता है, तो वह समस्त चैतन्य जगत् से कुछ न कुछ गुण ग्रहण करता रहता है।
प्रमोदभावना और गुणग्राही दृष्टि का अन्योन्य सम्बन्ध है । गुणग्राही दृष्टि न हो तो प्रमोदभावना वाला अच्छे गुणी सन्तों के पास रहकर भी कुछ ग्रहण नहीं कर सकेगा, न कुछ विकास कर सकेगा।
धूलशोधक मिट्टी में से सोना निकाल लेता है, क्योंकि उसकी दृष्टि सोने पर रहती है। इसी प्रकार गुणदृष्टि वाला व्यक्ति दुर्गुणी व्यक्ति में से भी कोई न कोई गुण निकाल ही लेता है । इसलिये भर्तृहरि कहते है :
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं ।
निजहदि विकसन्तः सन्तः सन्ति कियन्तः ? दूसरों के परमाणु जितने छोटे-से गुण को पहाड़ - सा बड़ा बनाकर अपने
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