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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ हृदय में विकसित करने वाले सन्त कितने हैं ?
लोहचुम्बक के पास अनाज के दाने, पत्थर के टुकड़े, मिट्टी के कण आदि अन्य वस्तुएँ पड़ी होंगी तो वह उन्हें अपनी ओर नहीं खींचेगा, लेकिन लोहे की कोई छोटी सी चीज पिन या सुई पड़ी होगी तो वह उसे अपनी ओर खींच लेगा, अपने शरीर से चिपका लेगा। यही बात गुणदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति के लिए समझिए। दूसरे व्यक्ति में क्रोध के कीटाणु, अहंकार के कंकड़ या अज्ञान के कण होंगे तो वह उनमें से एक को भी नहीं अपनायेगा, अपने जीवन से नहीं चिपकायेगा, किन्तु उस व्यक्ति में यदि जरा-सा भी कोई गुण का कण होगा तो वह उसे अपना लेगा, अपनी ओर खींचकर उसे हृदय से लगा लेगा । गुणग्राही व्यक्ति का हृदय लोहचुम्बक-सा होता है।
भगवद्गीता में भी स्पष्ट कहा है -
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । __ शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण हो, गाय हो, हाथी हो, कुत्ता हो, या चाण्डाल हो, गुणग्राही पण्डित सबके प्रति समदर्शी होते हैं।
जैनधर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ 'गुणानुरागकुलक' में बताया गया है कि "जिस पुरुष के हृदय में उत्तम गुणों से प्रेम रहता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है, अपितु सुलभ है । गुणानुरागी पुरुष धन्य है, उसे कृतपुण्य समझना चाहिए।"
मनुष्य कितना ही तप करे, सत्संग करे, शास्त्र-स्वाध्याय करे, विविध अपरिग्रह करे और कष्ट सह ले, किन्तु वह यदि गुणानुरागी नहीं बनता है तो उसका सारा तप, जप, स्वाध्याय, संयम, सत्संग और कष्ट सहना व्यर्थ है। दूसरों के सद्गुण देखकर प्रसन्न न होना, आत्मकल्याण के समुपस्थित अवसर को खोना है । आत्मकल्याण की दृष्टि से गुण-ग्रहण के अवसर को खोना प्यासे आदमी का पनघट से वापस लौट जाने के समान है। जिसने गुणग्राहक दृष्टि अपनाकर अपने जीवन में सद्गुणों की राशि संचित नहीं की, उसके लिए मोक्षप्राप्ति के सभी साधन निरर्थक सिद्ध होते हैं । आत्म-कल्याण या समतायोग के पथ पर अग्रसर होने वाले साधकों के लिए गुणानुराग की वृत्ति ही गौरवास्पद मार्ग है। श्रेयमार्ग के पथिकों के लिए
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