________________
समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
समाजमैत्री - भावना में सिद्धहस्त अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन मानव-1 - हितैषी एवं न्यायपरायण थे। आजीवन कारावास दण्ड के अपराधी का एक प्रार्थनापत्र उनके समक्ष आया, जिसके साथ कोई सिफारिशी पत्र न था । राष्ट्रपति ने अपने निजी सचिव से पूछा "क्या इस व्यक्ति का कोई मित्र नहीं है ?" उत्तर मिला - "ऐसा ही मालूम होता है ।" इस पर राष्ट्रपति ने कुछ क्षण सोचकर उस क्षमा-प्रार्थना के पत्र को स्वीकार करते हुए लिखा " जिसका कोई मित्र नहीं उसका मित्र मैं बनता हूँ । राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को न्याय दिलाना मेरा कर्तव्य है ।"
८८
संत केवलरामजी एक गाड़ीवान को उसकी गाड़ी के साथ चलते-चलते कृष्णचरितामृत का पान करा रहे थे । सहसा जब बैल एक जगह रुक गये तो गाड़ीवान ने उनके ३-४ डण्डे जोर से जमा दिये । डण्डों के डर से बैल जोर से भागने लगे । गाड़ीवान को जब संतजी का ध्यान आया, तो उसने पीछे मुड़कर देखा, संतजी मूच्छित होकर गिरे पड़े हैं। गाड़ीवान ने दौड़कर उन्हें उठाया, उसने देखा कि बैलों के मारे गए डण्डों के निशान अब भी केवलरामजी के शरीर पर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे । जब प्राणीमात्र के प्रति 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के रूप में मैत्रीभावना परिपक्व हो जाती है, तब आत्मत्व और विश्वत्व में अभिन्नता - सी हो जाती है । फिर विश्व के जर्रे जर्रे का ज्ञान, प्रत्येक हलचल का बोध उसे हो जाता है ।
२. प्रमोद - भावना
मैत्री - भावना से समस्त प्राणियों के प्रति आत्मीयता - आत्मौपम्य की दृष्टि विकासित होती है, परन्तु प्रमोद - भावना से उन प्राणियों में से कुछ विशिष्ट गुणसम्पन्न प्राणियों के गुणों को देखकर चित्त में आह्लाद उत्पन्न होता है ।
आचार्य श्री अमितगति ने प्रमोदभावना का उल्लेख इस प्रकार किया है - 'गुणिषु प्रमोदम्'
संसार के गुणी व्यक्तियों या प्राणियों पर सदा प्रमोद - भावना हो । प्रमोदभावना समतायोग को मार्ग दिखाकर गति - प्रगति कराने वाली
आँख है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org