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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ पूछा 'क्या आपके जीवन में ऐसी भी कोई वस्तु है, जिसे आप न खरीद सके हों ?' हेनरी फोर्ड ने उत्तर दिया .. 'यदि मुझे अपना जीवन फिर से शुरू करना पड़े तो सबसे पहले मैं मित्रों की तलाश करूँगा । धन से मुझे मित्र-दिलेर मित्र न प्राप्त हो सके ।'
मित्रता की चाह वैसे तो प्रत्येक मनुष्य को होती है, लेकिन वह ठहरती उन्हीं के पास है जिनके हृदय शुद्ध होते हैं । जो स्वार्थ, कपट और कामनाओं से ग्रस्त होते है, उन्हें सच्ची मैत्री उपलब्ध नहीं होती ।
इसीलिए एक कवि ने मैत्री-भंग के कारणों की मीमांसा करते हुए कहा
विवादो, धनसम्बन्धो, याचनं, स्त्रीषु संगतिः ।
आदानमग्रतः स्थानं, मैत्रीभंगस्य हेतवः ।।
वादविवाद (बहस),अर्थ-सम्बन्ध, याचना(माँगना), स्त्रियों के साथ अधिक संसर्ग, लेने(स्वार्थ) की प्रधानता और अग्रगण्य का स्थान पाना, ये मैत्री-भंग के कारण हैं । संकुचित स्वार्थ, अनुदारता, कपट और शिकायत तथा संकीर्णता, ये भी मैत्रीभावना में बाधक तत्त्व हैं । मैत्रीभावना के आवश्यक साधक तत्त्व हैं - सहयोग, सहानुभूति, दूरदर्शिता, उदारता, नि:स्वार्थता, निश्छलता और आत्मीयता-- बन्धुता आदि ।
मैत्री मानवजाति का कोमल नवनीत है, गौरव है, मधुर गोरस है । जो जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्र, प्रान्त आदि इस गौरव को अक्षुण्ण रखते हैं, वे कभी विनष्ट नहीं होते । सबके हित में अपना हित सोचने से ही समाज-मैत्रीभावना विकसित हो सकती है।
मैत्री का आदर्श गणधर गौतम स्वामी के जीवन में देखा जा सकता है। एक दिन भ. महावीर ने उन्हें कहा था - "गौतम ! तुम्हारा और मेरा स्नेह इस देह तक ही सीमित नहीं है, वह पिछले कितने ही जन्मों से अविच्छिन्न रुप में चला आ रहा है । जीवन के दृश्य बदले हैं, द्रष्टा (आत्मा) वही रहा है। इसलिए मेरे प्रति तुम्हारी मैत्रीधारा आज तक सूक्ष्म रूप से तुम में बह रही है ।" इसी प्रकार की व्यक्ति-मैत्री सती राजीमती की तीर्थंकर अरिष्टनेमि के प्रति थी, जो भवों से अविच्छिन्न चली आ रही थी।
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