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________________ साहित्य सृजन के अनेक प्रयोजनों का संकेत किया है। आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रकाश में काव्य के निम्नलिखित प्रयोजन बताये हैं "काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। सद्यः पर निर्वृत्तये, कान्तासम्मित तयोपदेश युजे॥" अर्थात् काव्य से यश और धन की प्राप्ति होती है, वह मानव को व्यवहार कुशल बनाता है, अकल्याणकारी तत्वों का क्षय करता है, शीघ्र ही मुक्ति की प्राप्ति कराता है तथा प्रेयसी के समान मधुर उपदेश देता है। यहाँ 'कान्ता' शब्द साभिप्राय है। उपदेश प्रभु-सम्मित भी होता है, प्रायः नीतिज्ञों एवं धर्मशास्त्रों के द्वारा प्रदत्त उपदेश इसी प्रकार का होता है जैसे 'सत्यं वद', 'धर्मं चर' आदि, किन्तु इसमें वह माधुर्य और प्रभाव कहाँ जो प्रेयसी के उपेदश में होता है। स्वामी की आज्ञा की तो एक बार उपेक्षा भी की जा सकती है किन्तु 'कान्ता सम्मित उपदेश' इतना प्रभावशाली होता है कि उसकी उपेक्षा करना सरल नहीं होता। साहित्य का उपदेश इसी प्रकार का होता है। व्यापक दृष्टि से देखें तो साहित्य में प्रायः कोई न कोई संदेश निहित रहता ही है, कहीं वह प्रत्यक्ष रूप में तो कहीं प्रछन्न रूप में। कथा, कहानी, उपन्यास, नाटक कोई न कोई शिक्षा अथवा संदेश हृदय पर अवश्य छोड़ जाते हैं किन्तु जिस साहित्य में यह तत्व प्रमुख और प्रत्यक्ष होता है उसे उपदेशात्मक साहित्य की संज्ञा दे दी जाती है। नीति साहित्य भी मूलतः उदेशात्मक साहित्य है। डॉ0 भोलानाथ तिवारी ने अपने शोध प्रबन्ध 'हिन्दी नीति काव्य' में 'नीति' शब्द का सम्बन्ध संस्कृत की 'णीय' धातु से बताया है, जिसका अर्थ 'ले जाना' होता है अर्थात् 'नीति का कार्य मनुष्य को जीवन में अग्रसर करना है। इस प्रकार नीति काव्य अथवा उपदेशात्मक साहित्य मानव को कर्त्तव्य की ओर प्रेरित करता है। साहित्य में सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तीनों का उचित समन्वय ही समीचीन होता है। सौन्दर्य तत्व की उपेक्षा करने वाला साहित्य तो ललित साहित्य की कोटि में ही नहीं आ पाता, सत्य से विहीन साहित्य आकाश कुसुम के समान यथार्थ से दूर हो जाता है और शिवं तत्व की उपेक्षा करने वाला साहित्य एकांगी और पंगु हो जाता है। रीतिकालीन अधिकांश साहित्य इसका प्रमाण है। वास्तव में साहित्य वही है जो भूले हुए पथिकों को सन्मार्ग पर लगा दे, तड़पते हुए को सान्त्वना प्रदान करे और जीवन सुधार के मार्ग को प्रशस्त बनावे। कुछ विद्वानों ने उपदेशात्मक अथवा नीति काव्य को उच्च कोटि का साहित्य नहीं माना है। हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने नीति के (77) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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