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जयजयकार किया है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं" जय जय जिनदेव सुपार्श्व पास || जय जय गुणपुंज कहै निवास ।। जय जय चन्द्रप्रभ चंद्रकान्ति ॥ जय जय तिहुं पुरजन हर भ्रान्ति । । अर्थात् विकारों पर विजय प्राप्त करने वाले, गुणों के समूह जिनेन्द्र भगवान सुपार्श्वनाथ तुम्हारी जय हो । चन्द्रमा की ज्योत्सना के समान शीतलता प्रदान करने वाले तथा प्राणियों की मिथ्या बृद्धि को नष्ट करने वाले चन्द्रप्रभु भगवान की जय हो । प्रस्तुत रचना सत्रह दोहा धत्ता तथा पद्धरि छन्दों में निबद्ध है। ( 14 ) जिनधर्म पचीसिका
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इस रचना में कवि ने जैनधर्म की कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डालकर उसकी महत्ता बताई है और उसका जयजयकार किया है। छहों द्रव्य (जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, काल, आकाश) नवतत्व (जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पाप, पुण्य) आदि का ज्ञान जिनधर्म ही प्राप्त कर सकता है। जीव में अनन्त शक्ति है, वह शरीर से भिन्न है, रागद्वेष के परिणामस्वरूप ही कर्मबंध होता है इन बंधनों को तोड़कर ही वह मोक्षगामी हो सकता है। इस सबका ज्ञान जैनधर्म ही प्रदान करता है -
"जैनधर्म परसाद जीव सब कर्म खपावै । जैनधर्म परसाद जीव पंचम गति पावै ।
जैनधर्म परसाद बहुरि भव में नहि आवै । जैनधर्म परसाद आप परब्रह्म कहावै । "
अट्ठाईस दोहे छप्पय सवैया एवं कवित्त छंदों में बद्ध इस कृति की रचना कवि ने वि० सं० 1750 की भाद्र सुदि पूर्णिमा को की थी।
उपदेशात्मक साहित्य
साहित्य और समाज का अटूट सम्बन्ध है। जहाँ एक ओर साहित्य अपने युग के समाज का दर्पण है वहीं दूसरी ओर उसमें अपने युग के लिये शाश्वत संदेश भी अन्तर्निहित रहता है। वस्तुतः साहित्य सृजन करते समय साहित्यकार के सम्मुख कोई लक्ष्य अवश्य रहता है। सामान्यतः वह अपनी आत्मानुभूति को स्वयं तक सीमित न रखकर उसे जन जन की अनुभूति बना देना चाहता है और स्वअर्जित अनुभव राशि को जन सामान्य में वितरित कर देना चाहता है जिससे भावी पीढ़ियाँ उससे लाभ प्राप्त करती रहें। आचार्यों ने
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