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कोटि-कोटि मुनिवर मोक्षगामी हुए हैं। 21 चौपाई तथा एक दोहा छंद में बद्ध इस रचना का सृजन वि० सम्वत् 1741 की आश्विन सुदी दशमी के दिन किया गया।
( 11 ) नन्दीश्वर द्वीप की जयमाला
जैन शास्त्रों के अनुसार, मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं उन सबके मध्य में जम्बूद्वीप है उसे लवण समुद्र घेरे हुए है फिर एक द्वीप फिर एक सागर इसी प्रकार अनन्त द्वीप और सागर हैं। इसी क्रम में अष्टम द्वीप है नन्दीश्वर द्वीप। इनमें 52 विशाल एवं अकृत्रिम जिनमंदिर हैं अर्थात् अनादि काल से इन मंदिरों में पाँच धनुष ऊँची जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं। कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ के अन्तिम आठ दिनों - अष्टान्हिका पर्व में सौधर्म तथा अन्य इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप में जाकर इन अकृत्रिम जिन मंदिरों में स्थापित प्रतिमाओं का अभिषेक तथा पूजन करते हैं। प्रस्तुत रचना में पहले कवि ने नन्दीश्वर द्वीप की स्थिति उसके आकार-प्रकार उसके क्षेत्रफल आदि का परिचय दिया है, उनमें स्थित जिन प्रतिमाओं का वर्णन करके अन्त में उनकी वंदना की है।
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'भैया' नितप्रति शीश नवाय। वंदन करहि परम गुण गाय । इह ध्यावत निज पावत सही। तौ जयमाला नन्दीश्वर कही।।'
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प्रस्तुत रचना पन्द्रह दोहा चौपाई छंदों में बद्ध है।
( 12 ) अकृत्रिम चैत्यालय की जयमाला
जैन शास्त्रों के अनुसार त्रिलोक (ऊर्ध्व, मध्य, पाताल) में असंख्यात अकृत्रिम (मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं) जिन चैत्यालय हैं। मध्य लोक में अढ़ाई द्वीप में तीन सौ अट्ठानवें, नन्दीश्वर द्वीप में बावन, कुंडलवर द्वीप में चार और रूचकवर द्वीप में चार अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं। इस प्रकार मध्य लोक में केवल चार सौ अट्ठावन अकृत्रिम चैत्यालय हैं। 24 ऊर्ध्व और पाताल लोक में असंख्य अकृत्रिम चैत्यालय हैं। इनको अनादि - अनिधन मानते हैं। इस रचना में विभिन्न द्वीपों के अकृत्रिम चैत्यालयों की गणना करके अन्त में उनकी वन्दना की गई है। जयमाला की कवि के द्वारा भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी गुरुवार सम्वत् 1745 को रचना की गई। यह तैंतीस दोहा चौपाई छंदों में बद्ध है। (13) चतुर्विशति तीर्थंकर जयमाला
आदि में कवि ने चौबीस तीर्थंकरों की सामूहिक रूप से वंदना की है, तत्पश्चात् एक एक तीर्थंकर की किसी विशेषता का संकेत देते हुए उनका
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