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________________ मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, अरति, निदा, विस्मय, विषाद, स्वेद और खेद इन 18 दोषों से रहित होते है। वैसे तो भगवान अनन्त गुणों के स्वामी हैं किन्तु व्यवहार की दृष्टि से इस प्रकार कहा गया है। प्रस्तुत रचना इक्कीस दोहा चौपाई छंदों में बद्ध है। (9) पंचपरमेष्ठि नमस्कार ___अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु पंच-परमेष्ठी कहलाते हैं, इन्हें ही पंचगुरु भी कहते हैं। यह क्रम साधु से सिद्ध तक उत्तरोत्तर अधिकाधिक आत्मशुद्धि की दृष्टि से रखा गया है। जैन धर्मावलम्बियों का सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय 'णमोकार मंत्र' पंच परमेष्ठी से ही सम्बंधित है। यद्यपि सिद्ध अरहंत से भी ऊँचे होते हैं, अरहंत के पश्चात सिद्ध पद की प्राप्ति होती है, अरहंत सशरीर होते हैं सिद्ध शरीर भी त्याग चुके होते हैं, एकदम मुक्त, फिर भी अरहंत को सिद्ध से पूर्व स्थान मिला है क्योंकि वे तप करके केवल ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् धर्मोपदेश करते हुए लोकोपकार करते हैं। जैन परम्परा में इस 'णमोकार मंत्र' को अनादि अनिधन माना जाता है। भगवान महावीर ने 14 पूर्वो की विद्या अपने गणधरों को स्वयं प्रदान की थी। उनमें से विद्यानुवादपूर्व (जैन मंत्र विद्या का शास्त्र) का प्रारम्भ इसी णमोकार मंत्र से हुआ था। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर णमोकार मंत्र का प्राचीनतम उल्लेख हाथी गुफा के शिलालेख में प्राप्त होता है, जिनके निर्माणकर्ता कलिंगाधिपति सम्राट खारवेल ईसा से 170 वर्ष पूर्व हुए थे। इस लघु रचना में कविवर भैया भगवतीदास ने पाँचों परमेष्ठियों की विशेषताएं बताकर नित्य प्रातः उनका स्मरण करते हुए नमन करने का संदेश दिया है। यह रचना छह दोहा चौपाई छंदों में बद्ध है। (10) निवार्णकांड भाषा __ इस रचना में सभी निर्वाण क्षेत्रों की वन्दना की गई है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का कैलाश पर्वत से, 12 वें तीर्थंकर वासुपूज्य का चंपापुर से, 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ का गिरनार पर्वत से और 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर का पावापुर से निर्वाण हुआ है शेष बीस तीर्थंकरों को श्री सम्मेद शिखर (बिहार) से मोक्ष की प्राप्ति हुई है तथा अनेक मुनियों की भी मक्ति हुई है। कवि ने प्रारम्भ में इन पाँचों सिद्ध क्षेत्रों (निर्वाण क्षेत्र) की वंदना की है तत्पश्चात् पावागिरि, शत्रुजयगिरि, गजपंथ सिद्धवर कूट, बड़वानी, दोणगिरि, कुंथलगिरि, मेढगिरि आदि तीर्थों की वन्दना की है जहाँ से (74) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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