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अहिच्छत्र या अहिक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हो गया। भक्त श्रद्धेय से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु और स्थान से भी भावात्मक सम्बन्ध रखता है, उसकी वन्दना करना उसके लिये स्वाभाविक ही है। इस रचना में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन से सम्बंधित इस घटना का उल्लेख करके पवित्र तीर्थस्थल अहिक्षेत्र की वन्दना की गई है। इस स्तुति की रचना कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष (सुदी) की दशमी गुरुवार संवत् 1731 को हुई थी तथा यह दस दोहा छंदों में निबद्ध है।
( 8 ) जिनगुणमाला
इस रचना में कविवर भैया भगवतीदास जी ने तीर्थकरों की वन्दना की है, उन्हीं तीर्थकरों की जो 18 दोषों से मुक्त और छियालीस गुणों से युक्त हैं। पहले कवि ने बताया कि उनके गुणों का उत्तरोत्तर कैसे विकास होता है। दस गुण तो उनमें जन्मत: ही होते हैं जैसे उनका शरीर प्रस्वेद रहित तथा मल रहित होता है, उनका रक्त श्वेत होता है, शरीर अत्यंत सुडौल एवं द्युतिवान होता है, शरीर की सुगंध कितने ही योजन तक फैलती है, शरीर अत्यंत बलवान होता है, मुख से वचन सुधा के समान झरते हैं फिर दस गुण और प्रकाश में आते हैं जैसे उनके चारों ओर दो सौ योजन दूर तक अच्छी फसल होती है भगवान के चरण धरती पर नहीं पड़ते, उनसे किसी भी प्राणी का घात नहीं होता, आहार भी नहीं ग्रहण करते, उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती उनके केश और नख नहीं बढ़ते तथा पलक भी नहीं झपकते । तत्पश्चात् 14 गुण देवताओं द्वारा कृत होते हैं धरा दर्पणवत् निर्मल हो जाती है, दक्षिण दिशा से मंद सुगन्ध पवन चलती है, भूमि धूल और कंटकों से रहित हो जाती है। आकाश स्वच्छ हो जाता है, धन धान्य की वृद्धि तथा चारों ओर आनन्द की वृष्टि होती है धर्मचक्र भगवान के आगे-आगे चलता है। तीर्थंकरत्व की प्राप्ति पर आठ लक्षण और परिलक्षित होते हैं- यही अष्ट प्रातिहार्य कहलाते हैं, समस्त दुख सन्ताप को हरने वाले अशोक वृक्ष, पुष्प वर्षा, दुन्दुभिवादन, जयजयकार की दिव्यध्वनि, भगवान के ऊपर त्रिछत्र ( तीन छत्र) और नीचे सिंहासन, मुख के पीछे प्रभामंडल और चारों ओर चमर दुलाये जाते हैं।
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"चौसठ चवर ढरहिं चहुँ ओर । सेवहिं इन्द्र मेघ जिम मोर । । ' इनके अतिरिक्त भगवान 4 गुणों से युक्त होते हैं जो अनन्त चतुष्टय कहलाते हैं; अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य । इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान 46 गुणों से युक्त होते हैं तथा क्षुधा, तृषा, जरा, रोग, जन्म,
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