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(6) श्री मुनिराज जयमाला
जैन भक्ति में गुरु का भी महत्वपूर्ण स्थान है, यहाँ पंचगुरु माने गए हैं अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन्हें ही पंचपरमेष्ठी कहा गया है। आत्मशुद्धि की ओर क्रमिक उत्तरोत्तर विकास के ही ये विभिन्न स्तर हैं। गुरु वह है जो सम्यक् पथ अर्थात् मोक्षमार्ग का निर्देशन करे। इस पद का अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता है जो उस पथ पर चल चुका हो अथवा चल रहा हो। सच्चे साधु उस पथ पर चलते हैं, उसके अंग-अंग से परिचित होते हैं वही संसारी जीवों को उस पथ का अनुसरण करने में सहायता दे सकते हैं। इस रचना में कवि ने मुनियों के कठिन आचरण की विशेषताएं बताते हुए उनको नमन किया है। वे पंच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) का पालन करते हैं- षट आवश्यक (सामयिक, स्तुति, वंदना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग) भूमि पर शयन करते हैं- नग्न रहते हैं, एक ही बार सूक्ष्म सा आहार ग्रहण करते हैं, बाईस परीषह (देखिए परिशिष्ट) सहते हुए कठिन तपस्या करते हैं। इस मुनिगुणमाला को जो अपने हृदय में धारण करता है वह जनममरण के भय से मुक्त हो शिवसंपति को प्राप्त करता
"यह श्रीमुनि गुणमालिका, जो पहिरे उर माहि।। तिनको शिवसंपति मिले, जन्म मरन भय नाहिं।।"
प्रस्तुत कृति दस दोहा छंदों में बद्ध एक गेय रचना है। (7) अहिक्षिति-पार्श्वनाथ जिन-स्तुति
आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दि श्रावकाचार में पूजा के छः भेद स्वीकार किये हैं नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। परमेष्ठियों की स्मृति से चिह्नित स्थानों की पूजा करना ही क्षेत्र पूजा है। प्रस्तुत रचना में तेईसवे तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी से सम्बंधित प्रसिद्ध तीर्थ अहिक्षेत्र की वन्दना की गई है। यह स्थल भगवान पार्श्वनाथ (ईसा से 850 वर्ष पूर्व) के समय से भी पूर्व पूजनीय था, पार्श्वनाथ विहार करते समय जब यहाँ पधारे और ध्यानमग्न थे उस समय उनके पूर्व जन्म के बैरी कमठ के जीव संवर नामक ज्योतिषी देव ने उनके ऊपर पाषाण वर्षा करके घोर उपसर्ग किया तब देवी पद्मावती और धरणेन्द्र देव ने भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर 'नागफण मंडल रूप' छत्र लगाकर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की थी तभी से यह स्थल
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