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श्री देवजस, श्री अजितवीर्य । अन्त में एक दोहे और कवित्त में बीसों तीर्थंकरों की सामूहिक रूप से वंदना की गई है। यह रचना बीस कवित्त, सवैया और छप्पय छंदों में बद्ध है।
(4) परमात्मा की जयमाला
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सात दोहों की संक्षिप्त-सी इस रचना में कवि ने परम आत्मा की विभिन्न विशेषताओं की ओर संकेत किया है। वह अनन्त शक्ति से सम्पन्न है उसकी समानता कोई नहीं कर सकता। वह लोकालोक का ज्ञान धारण किए हुए है जन्म मरण से परे है, अनन्त सुख उसका स्वभाव है, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों का नाश हो चुका है, 'पर' का रंचमात्र भी स्पर्श नहीं है अर्थात् आत्मा के अतिरिक्त सभी कुछ शरीर भी पर ( पराया) है उसमें रंचमात्र भी लिप्त नहीं है, अविनाशी अविकार है वही निश्चित रूप से परमात्मा है।
" पर का परस रंच नहीं जहाँ । शुद्ध सत्य कहावै तहाँ ।। अविनाशी अविचल अविकार । सो परमातम है निरधार ।। " यह रचना सात दोहा छंदों में बद्ध है।
( 5 ) तीर्थंकर जयमाला
इस रचना के प्रारम्भ में कवि ने भगवान जिनेन्द्र को प्रणाम कर तीर्थंकर की विभिन्न विशेषताएं बताकर उनका जयजयकार किया है।
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'जयजय तम नाशन प्रगट भान। जय जय जित इन्द्रिन तू प्रधान || जयजय. चारित्र सु यथाख्यात । जय जय अधनिशि नाशन प्रभात ।। तम अर्थात् अज्ञान और मोह के अंधकार का नाश करने वाले सूर्य के समान तुम्हारी जय हो, इन्द्रियों को जीतने वाले तुम्हारी जय हो, तुम्हारा चारित्र संसार में विख्यात है पाप रूपी रात्रि का समापन करने वाले प्रभात के समान तुम्हारी जय हो ।
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अन्त में कविवर ने एक ही छंद में समस्त अध्यात्म का सार भरकर मानव को मोक्ष का सरल सा मार्ग सुझाया है।
" ते निज रसरत्ता तज परसत्ता, तुम सम निज ध्यावहि घट में || ते शिवगति पावैं बहुर न आवैं, बसैं सिंधु सुख के तट में ।। " प्रस्तुत रचना नौ पद्धरि, दोहा एवं घत्ता छंदों में बद्ध है।
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