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है। यदि कर्म को करने वाला ईश्वर है तो उसके किये हुए कार्य जीवकृत पाप पुण्य की कोटि में क्योंकर आ सकते हैं और फिर उनका फल-सुख अथवा दुख उसे स्वयं ही भोगना चाहिये, फिर वह जीवों को बांह पकड़-पकड़कर नरक में क्यों डालता है, उनका क्या अपराध है। यदि कहें कि ईश्वर की आज्ञा से ही सब कार्य होते हैं तो हिंसादिक अशुभ कर्मों का कर्ता भी ईश्वर को ही कहा जाना चाहिये। वस्तुतः शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता मनुष्य स्वयं है, स्वयं ही उनका फल भोगता है। जो अज्ञानी जीव हैं वही ईश्वर को दोष दिया करते हैं वास्तव में
"अपने अपने सहज के, कर्ता हैं सब दव। यहै धर्म को मूल है, समझ लेहु जिय सर्व।।"
संसार के प्रत्येक प्राणी अपने-अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं, वही उनका धर्म है। इस कृति की रचना पौष शुक्ल सप्तमी सं0 1751 वि० को की गई।
स्तुति और जयमाला साहित्य मुख्य रूप से पूजा के दो भेद माने गये हैं द्रव्य पूजा और भाव पूजा। किसी न किसी द्रव्य से आराध्य के मूर्ति-विम्ब आदि की पूजा करना द्रव्य पूजा। और भगवान को मन में स्थापित करके उनका ध्यान लगाना अथवा उनके गुणों का कीर्तन करना भाव पूजा है। द्रव्य पूजा में भगवान का कोई न कोई चिह्न द्रव्य रूप में सम्मुख उपस्थित रहता है और कुछ वस्तुएं- जल, चन्दन, तन्दुल, पुष्प, नैवेद्य, दीप धूप आदि अर्पित की जाती हैं। भाव पूजा में भक्त भगवान का अपने हृदय में ही स्मरण कर ध्यान लगाकर उनका स्तवन करता है। द्रव्य पूजा गृहस्थों के लिये निर्धारित की गई है क्योंकि निराकार की स्थापना उनके लिये कठिन है और भाव पूजा साधुओं के लिये। स्तुति, स्तोत्र, स्तवन, गुणमाला, जयमाला, गुणमंजरी आदि सब भाव पूजा के अन्तर्गत आते हैं। जैन धर्मावलम्बियों में पूजा से तात्पर्य द्रव्य पूजा से ही लिया जाता है। पूजा स्तोत्र आदि में शैलीगत भेद ही है, भाव की दृष्टि से दोनों समान हैं। किन्तु कुछ लोग यह भी मानते हैं 'पूजा कोटि समस्तोत्र' अर्थात् एक करोड़ बार पूजा करने से जो फल मिलता है वह एक बार के स्तोत्र पाठ से उपलब्ध हो जाता है।20 इसका कारण भी है 40 हीरालाल जैन के अनुसार "पूजक का ध्यान पूजन की ब्राहृय सामग्री की स्वच्छता आदि पर ही रहता है, जबकि स्तुति
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