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________________ भगवान में है वही प्रत्येक प्राणी में है। किन्तु मोहरूपी मैल से युक्त दृष्टि उसे देख ही नहीं पाती। परमात्मा का ध्यान करते करते जीव स्वतः ही परमात्म रूप हो जाता है अतः उसी परमशुद्ध चैतन्य स्वरूप भगवान का स्मरण करना चाहिये। छत्तीस दोहा छंदों में निबद्ध इस कृति की रचना सम्वत 1750 वि0 के मार्गशीर्ष में कृष्णपक्ष की द्वितीया को की गई। (18) ईश्वर निर्णय पचीसी प्रस्तुत रचना भी कविवर भैया भगवतीदास जी की एक दर्शन प्रधान रचना है जिसमें ईश्वर के सम्बन्ध में विचार किया गया है। ईश्वर सम्बन्धी विवाद हमारे देश में समय-समय पर प्रबल रूप धारण करता रहा है। एक मत को मानने वाला दूसरे मत का खंडन और अपने मत की श्रेष्ठता प्रतिपादित करता है। इसी बात को लक्ष्य करते हुए कवि ने भी कहा है "ईश्वर ईश्वर सब कहें, ईश्वर लखै न कोय। ईश्वर तो सो ही लखै, जो समदृष्टी होय।" रागद्वेष से रहित शुद्ध दृष्टि वाले व्यक्ति ही ईश्वर के सम्बन्ध में जान सकते हैं। अवतारवाद का खंडन करते हुए कवि ने कहा है कि जिसके देह ही नहीं हैं और जो अविनाशी तथा अविकार है, वह बार-बार देह कैसे धारण कर सकता है और जो बार-बार जन्म ले और मरण को प्राप्त हों, वह ईश्वर किस प्रकार हो सकता है। अनेक मत-मतान्तरों से भरपूर इस संसार में मनुष्य की बुद्धि भ्रमित हो रही है, उसकी दशा उस श्वान के समान है जो एक कांच के भवन में बंद कर दिया जाय और वह अपने ही अनेक प्रतिबिम्ब देखकर कभी इस ओर और कभी उस ओर भागता रहे। ईश्वर तो प्रत्येक मानव की आत्मा में विद्यमान है। जब आत्मा कर्म बंधनों से मुक्त हो जाती है तो ईश्वर हो जाती है और कर्म बंधनों से युक्त होने पर एक सामान्य सांसारिक प्राणी। "ईश्वर सो ही आत्मा, जाति एक है तंत। कर्म रहित ईश्वर भये, कर्म सहित जग जंत।।" जो अपनी आत्मा में ईश्वरत्व के दर्शन कर लेता है वही ईश्वर हो जाता है। प्रस्तुत रचना 27 दोहा, कवित्त, कुंडलिया आदि छंदों में बद्ध की गई है। (19) कर्ता-अकर्ता पचीसी प्रस्तुत रचना में कविवर ने इस प्रश्न पर विचार किया है कि कर्मों का कर्ता कौन है, ईश्वर अथवा मानव? और तर्कपूर्ण शैली में सिद्ध किया है कि कर्मों का कर्ता और भोक्ता स्वयं जीव होता है ईश्वर इन दोनों ही बातों से परे (66) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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