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का क्षय करने के लिए आत्मा के प्रदेशों को लोक की सीमा तक फैला लेते हैं। मृत्यु से कुछ पहले आत्मा के प्रदेश अपनी (आगामी) गति का स्पर्श कर लौट आते हैं। कभी-कभी मन में शंका उत्पन्न होने पर मुनि शंका समाधान हेतु अपने आत्म प्रदेशों का प्रसार करते हैं। यह दर्शन सम्बन्धी तथ्य जन सामान्य की पहुँच से परे है। ये रचना 11 दोहा छंदों में बद्ध है। (16) सम्यक्त्व पचीसिका
जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य (शक्ति) गुणों से (जिन्हें अनन्त चतुष्टय भी कहते हैं) युक्त होता है। अष्टकर्मों में से चार घाति कर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय जीव के उपर्युक्त गुणों का ह्रास कर देते हैं। इनमें से मोहनीय कर्म सर्वाधिक प्रबल होता है तथा जीव का सर्वाधिक अहित करता है। वह जीव को उसके वास्तविक स्वरूप से ही अनभिज्ञ बना देता है। मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं (1) दर्शन मोहनीय व (2) चारित्र मोहनीय। इनके भी अनेक छोटे-छोटे भेद हो जाते हैं। सम्यक्त्व ही मोहनीय कर्म की शक्ति का क्षय करता है। मोहनीय कर्म की प्रबलता कम होने पर ही जीव को सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है।
प्रस्तुत रचना में कवि ने सम्यक्त्व के तीन भेदों- उपशम, क्षायिक, वेदक का उल्लेख करके उनका महत्व बताया है तत्पश्चात् कवि ने सम्यक् दृष्टि और मिथ्यात्वी जीव के कर्मों का अन्तर बताया है और कहा कि सम्यक् दृष्टि जीव किस प्रकार निरन्तर साधना करता हुआ, कर्ममल को क्षय करता हुआ, मुक्ति की प्राप्ति कर लेता है। अन्त में कवि ने सम्यक् दर्शन को ही अनन्त सुख की नींव बताया है। प्रस्तुत कृति की रचना कवि ने वि0 सं0 1750 के मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष में दशमी एवं सोमवार को की थी। (17) परमात्म छत्तीसी
प्रस्तुत रचना में कवि ने सर्वप्रथम परमपद को प्राप्त आत्माओं को प्रणाम किया है तत्पश्चात् आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख किया है। आत्मा की तीन अवस्थाएं होती हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा। बहिरात्मा वह है जो परद्रव्यों में लिप्त रहता है, अन्तरात्मा परद्रव्यों को अपने से भिन्न समझता है अतः सम्यग्दृष्टि होता है। परमात्मा रागद्वेष के मल से रहित कर्मबंधन मुक्त परम शुद्ध होता है। कर्मों के संयोग से ही आत्मा के तीन भेद हो जाते ह16 तथा कर्मों की मूल रागद्वेष परिणति है। जो आत्मा सिद्ध
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