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________________ कर्कश वचन, रोने का स्वर या उत्पात सूचक शब्द और कुछ अन्तराय स्मरण सम्बन्धी होते हैं जैसे ग्लानि दिलाने वाले पदार्थों का स्मरण। इस प्रकार के छियालीस दोष होते हैं, इनके न होने पर ही मुनि आहार ग्रहण करते हैं अन्यथा उपवास रखते हैं जैन धर्म में मुनि चर्या अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत कृति में इस आहार विधि का ही वर्णन किया गया है। पच्चीस दोहा चौपाई छंदों में बद्ध प्रस्तुत रचना वि० सं0 1750 में ज्येष्ठ सुदि पंचमी को रची गई। (14) अनादि बत्तीसिका जैन धर्म के अनुसार यह संसार छः द्रव्यों से मिलकर बना है। छः द्रव्य इस प्रकार हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश। ये छहों द्रव्य अनादि काल से सृष्टि में विद्यमान हैं।14 सबके अपने पृथक-पृथक गुण हैं पृथक-पृथक पर्याय (अवस्थाएं) हैं। वन में वृक्षों को न कोई बोता है न सींचता है, फिर भी वे अपनी-अपनी ऋतु के अनुसार स्वयं ही फलते फूलते हैं। वर्षा स्वयं होती है, जल स्वयं ही नीचे को ढर जाता है, पक्षी स्वतः ही आकाश में उड़ने लगते हैं, सिंह के बच्चे स्वयं ही शक्तिशाली बन जाते हैं, इस प्रकार सब वस्तुएं अपने-अपने सहज स्वभाव से ही उत्पन्न स्थित और विनष्ट होती हैं।15 चेतन और पुद्गल के मिलने से स्वत: ही अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं और सृष्टि चलती रहती है किन्तु अज्ञानी मनुष्य कहते हैं कि ईश्वर ने सृष्टि रची है। तैंतीस दोहा छंदों में बद्ध यह रचना वि0 सं0 1750 में आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रविवार को रची गई। (15) समुद्घात स्वरूप जब केवल ज्ञानी जीव की आयु अल्प मात्र शेष रहती है, तब यदि उसके नाम गोत्र और वेदनीय, इन तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म से अधिक हो तो वह उसे समुद्घात क्रिया द्वारा आयु-प्रमाण कर लेता है। मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों का फैलकर बाहर निकलना समुद्घात है। फैलने की क्रिया को आरोहक, फिर धीरे-धीरे सिकुड़ने की क्रिया को अवरोहक कहते हैं। वैसे तो त्रसजीव लोकाकाश की एक राजू चौड़ी त्रसनाली में ही रहते हैं, किन्तु समुद्घात की इस प्रक्रिया में आत्मा के प्रदेश त्रसनाली से बाहर समस्त लोक में फैल जाते हैं। वैसे तो भैया भगवतीदास ने अपनी इस रचना में समुद्घात की इस प्रक्रिया के अनेक प्रयोजन बताये हैं। रोगादिक का संयोग होने पर चिकित्सा हेतु आत्मा के प्रदेश बाहर निकलते हैं। केवल ज्ञानी कर्मों (64) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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