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________________ मुनि विहार करते समय साढ़े तीन हाथ भूमि देखते हुए चलते हैं (8) इसे चर्या परीषह कहते हैं। साधु शरीर में फाँस गड़ जाने पर अथवा आँख में कुछ गिर जाने पर भी कष्ट अनुभव नहीं करते इसे (9) तृणफांस परीषह कहते हैं। मुनियों के लिए ग्लानि वर्जित होता है। अत: स्वयं से तथा अन्य किसी से भी ग्लानि न करने को (10) ग्लानि परीषह कहते हैं। रोगों के कारण कष्ट का अनुभव न करना (11) रोगपरीषह कहलाता है। मुनि नग्न रहते हैं नग्नता पर लज्जा का अनुभव न करना (12) नग्नपरीषह कहलाता है। वे किसी भी इन्द्रिय विषय की ओर आकृष्ट नहीं होते इसे (13) रति अरति परीषह कहते हैं। जिस नारी के निमेष मात्र पर बड़े-बड़े राज्यों की नींव हिल जाती है उस पर भी विजय प्राप्त करना (14) स्त्रीपरीषह है। मनुष्य मान सम्मान की सुरक्षा के लिए बड़ी-बड़ी धन सम्पदा राज्य तक लुटा देता है, किन्तु मुनि मान अपमान की भी चिंता नहीं करते उसे ही (15) मान अपमान परीषह कहते हैं। मुनि श्मशान आदि भयंकर स्थान में भी शांत रहते हैं भयभीत नहीं होते इसे (16) थिर परिषह कहते हैं। वे कुवचन नहीं बोलते यह (17) कुवचन परीषह है। किसी से कुछ भी याचना नहीं करते यह (18) अजाची परीषह है। ज्ञान धारण कर (19) अज्ञान परीषह पर जय प्राप्त करते हैं। नित्यप्रति अध्ययन आदि कर अपनी प्रज्ञा को विकसित करते हैं यह (20) प्रज्ञा परीषह है। (21) अदर्शन परीषह से तात्पर्य है कि वे मिथ्यात्वी नहीं होते। अंतराय के होने पर भी अलाभ या हानि की चिन्ता न करना (22) अलाभ परीषह है। प्रस्तुत कृति में इन्हीं का वर्णन है। अन्त में ऐसे बाईस परीषह जयी मुनिराज की स्तुति की गई है। यह रचना तीस कवित्त, छप्पय, कुडिलयाँ, घनाक्षरी तथा दोहा छंदों में बद्ध हैं। इसकी रचना फागुन सुदि द्वादशी गुरुवार सं0 1749 वि0 को की गई। (13) मुनि के छियालीस दोष वर्जित आहार विधि ___ जैन धर्म में मुनियों के आहार की विशेष विधि है, वे दिन में केवल एक बार भोजन और जल ग्रहण करते हैं। साधु को जीवन और संसार से नितान्त निरपेक्ष और निर्लिप्त रहना होता है। भोजन के लिए जाते समय या भोजन करते समय यदि कोई अन्तराय हो जाता है तब वे आहार नहीं लेते। इनमें कुछ अन्तराय दृष्टि सम्बन्धी हैं जैसे अस्थि, मांस, रक्त, विष्टा, मत प्राणी आदि का दिखाई दे जाना, कुछ स्पर्श सम्बन्धी जैसे पशु, पक्षी का स्पर्श हो जाना। कुछ अन्तराय श्रवण सम्बन्धी होते हैं जैसे देवमूर्ति का भंग होना, (63) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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