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________________ "ये ही आठों कर्ममल, इनमें गर्भित हंस । इनकी शक्ति विनाश कै, प्रगट करहिं निज वंस।। " यह रचना तेईस चौपाई तथा चार दोहा छंदों में बद्ध है। ( 11 ) रागदि निर्णयाष्टक जीव के भव भ्रमण का मूल कारण रागद्वेष आदि भावनाओं से उसका संयुक्त होना ही है । वह मूलतः तो शुद्ध स्वभाव का है किन्तु रागद्वेष और मोह की परिणति उसके साथ लगी रहती है जैसे किसी शुभ्र स्फटिक मणि पर रंग आदि लगा दिये जायें। मिथ्यादृष्टि जीव दोनों को भिन्न करके नहीं देख पाता और सम्यग्दृष्टि जीव दोनों को भिन्न-भिन्न रूप में देखता है। जब जीव स्वयं को रागादि से पृथक कर लेता है तब ही कर्मजाल को तोड़कर मुक्ति पद प्राप्त कर लेता है। यह रचना नौ दोहा मात्रिक कवित्त तथा चांद्रायण छंदों में बद्ध है। ( 12 ) बाईस परीसहन के कवित्त जैन धर्म में मुनि और श्रावकों के कर्त्तव्य और चर्या का विस्तृत वर्णन मिलता है। मुनि की चर्या बहुत कठोर होती हैं। शरीर के प्रति परायेपन का भाव आ जाने से उन्हें कष्ट का अनुभव ही नहीं होता। मुनि के लिए बाईस प्रकार के परीषह प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लेना आवश्यक है। ये बाईस प्रकार के सांसारिक कष्ट और बाधाएं होती हैं जिनके आने पर भी आर्त और संक्लेश परिणामों का न होना ही परीषहजय कहलाता है। ग्रीष्म ऋतु में जब धरती तवे की भाँति जलती है तब मुनि शैल श्रृंग शिला पर खड़े होकर रात दिन तपस्या करते हैं इसी को (1) ग्रीष्म परीषह कहते हैं। इसी प्रकार शीतकाल में शीत का अतिरेक उनको ध्यान से विचलित नहीं कर पाता यह (2) शीत परीषह कहलाता है। क्षुधा से संसार का प्रत्येक प्राणी पीड़ित होता है, मुनि इस पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं यही (3) क्षुधा परीषह है इसी प्रकार ( 4 ) तृषा परीषह है ( मुनि दिन में केवल एक ही बार भोजन के साथ जल ग्रहण करते हैं, अन्तराय हो जाने पर कभी-कभी वह भी नहीं लेते) मच्छर, सांप, बिच्छू आदि के काटने पर भी कष्ट का अनुभव नहीं करते उसे ही (5) डंसमस्कादि परीषह कहते हैं। मुनि भूमि पर एक ही आसन ( करवट ) से शयन करते हैं। इसे (6) शय्या परीषह कहते हैं। उन्हें कोई कितना ही शारीरिक कष्ट दे तब भी क्रोध नहीं करते न द्वेष रखते हैं। इसे ही (7) वधबंध परीषह कहते हैं । Jain Education International (62) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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