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________________ श्रावक जो स्वयं को सम्यक दृष्टि कहते हैं किन्तु उनके भाव तथा बाह्य लक्षण दोनों ही विपरीत होते हैं। प्रस्तुत रचना चौबीस दोहा चौपाई छंदों में निबद्ध है। ( 9 ) ब्रह्माब्रह्म निर्णय चतुर्दशी पंच परमेष्ठी - अरहंत सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु के प्रथम अक्षर-अ सि आ उ सा- -की वंदना कर कवि जीव को ही ब्रह्म बताता है तथा वैष्णवों के सृष्टिकर्ता ब्रह्म की समानता ब्रह्म अर्थात् जीव से करता है। ब्रह्म के चार मुख हैं और इस जीव के भी आँख, नाक, रसना और श्रवण ये चार मुख हैं इन्हीं से यह रूप रस गंध आदि का आनन्द ग्रहण करता है । इस जीव से ही समस्त सृष्टि सृजित हुई है इसीलिए इसे विरंच अर्थात् सृष्टिकर्ता कहा गया है। यह चौदह दोहा छंदों में बद्ध एक लघु रचना है। ( 10 ) अष्टकर्म की चौपाई जीव अनन्तगुण धारी होता है, उसके कर्म उन गुणों को आवृत किये रखते हैं। मुख्यतः उसके आठ गुण माने हैं, और कर्म के भी आठ भेद होते हैं जिन्हें अष्टकर्म कहते हैं। आठ गुण इस प्रकार है- (1) अनन्त ज्ञान, (2) अनन्त दर्शन, (3) अव्यावाधत्व, ( 4 ) सम्यक्त्व ( क्षायिक ), (5) अवगाह तत्व, ( 6 ) सूक्ष्मत्व, (7) अगुरु लघुत्व, (8) अनन्तवीर्य । अष्टकर्म इस प्रकार हैं (1) ज्ञानावरणीय, (2) दर्शनावरणीय, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) आयु, (6) नाम, ( 7 ) गोत्र, ( 8 ) अन्तराय । इनमें से एक एक कर्म एक एक गुण को आवृत किये रखता है जिससे जीव का वास्तविक स्वरूप ही छिप जाता है। ज्ञानावरणी कर्म से जीव का वास्तविक स्वरूप ही छिप जाता है। ज्ञानावरणी कर्म से जीव का ज्ञानगुण ढक जाता है, उसके छेदन से ही ज्ञान का प्रकाश विकीर्ण होता है। दर्शनावरणी कर्म से जीव सम्यक् श्रद्धान् नहीं कर पाता । वेदनी उसके मार्ग में बाधा पहुँचाता है। मोहनी जीव को अपने स्वरूप से ही असावधान कर देता है। आयु कर्म जीव को निश्चित समय तक किसी एक शरीर में रोक सकता है अर्थात् अवगाहनत्व में बाधा पहुँचाता है। नाम कर्म जीव का अमूर्तिक (सूक्ष्मत्व) गुण आवृत कर शरीर धारण कराता है । गोत्र कर्म अगुरुलघुत्व ढांक कर ऊंचनीच कुल का निश्चय कराता है और अन्तिम अन्तराय कर्म जीव की अनन्त शक्ति को प्रकट होने से रोकता है। इस प्रकार इन अष्टकर्मो का विनाश करके ही जीव अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सकता है - (61) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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