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दो सौ निन्यानवे तथा इन्हीं तीनों में क्षपक श्रेणी में प्रत्येक में पाँच सौ अट्ठानवें जीवों का निवास है। ग्यारहवें उपशांत कषाय में दो सौ निन्यानवे तथा बारहवें क्षीण कषाय में पाँच सौ अट्ठानवें जीव संख्या है। तेरहवें सयोग केवली में आठ लाख अट्ठानवें हजार पाँच सौ दो केवली भगवान हैं तथा चौदहवें अयोग केवली गुणस्थान में यह संख्या पाँच सौ अट्ठानवें हैं । तेरहवें गुणस्थान तक सब जीवों की संख्या आठ अरब सतहत्तर करोड़ निन्यानवें लाख निन्यानवें सहस्र नौ सौ सत्तानवें है। यह वर्णन कवि ने जैन दर्शन के प्रसिद्ध ग्रंथ गोम्मटसार के अनुसार किया है। यह रचना पच्चीस दोहा चौपाई छंदों में बद्ध है।
( 8 ) पन्द्रह पात्र की चौपाई
प्रस्तुत रचना में कवि ने आचरण की दृष्टि से पन्द्रह प्रकार के पात्रों का वर्णन किया है। ये पन्द्रह पात्र इस प्रकार हैं-तीन उत्तम पात्र, तीन मध्यम पात्र, तीन लघु पात्र, तीन कुपात्र और तीन अपात्र | उत्तम पात्र में सर्वश्रेष्ठ तीर्थंकर जो संसार सागर से पार जाते हैं, मध्यम श्रेणी में गणधर जो द्वादशांग वाणी (देखिये परिशिष्ट) के ज्ञाता होते हैं, सामान्य मुनि जो शुद्ध भावों के धारण कर्ता होते हैं। मध्यम पात्रों में उत्तम ऐलक श्रावक (देखिए परिशिष्ट ) जो केवल एक लंगोटी ही रखते हैं, मध्यम क्षुल्लक श्रावक (देखिये परिशिष्ट) जो पीछी और कमंडल भी रखते हैं और सामान्य दश प्रतिभाधारी श्रावक होते हैं। लघुपात्र में सर्वोत्तम क्षायिक सम्यक्त्वी श्रावक (जिन्हें कभी न कभी मोक्ष मिलेगा ही) मध्यम उपशमधारी (जिसने अपनी कषायों को शान्त कर लिया है) और सामान्य क्षायोपशमिक जिसके सम्यक् दर्शन में दोष उत्पन्न हो जाता है। तीन कुपात्र में प्रथम द्रव्यलिंगी मुनि जो मिथ्यात्वी होता है, बाह्य लक्षण तो मुनि वाले होते हैं किन्तु भाव शुद्ध नहीं होते। दूसरे वे मिथ्यात्वी श्रावक जो ज्ञान शून्य होते हैं किन्तु अपने को गुणवान समझते हैं। तीसरे वे मिथ्यात्वीजीव जिनका हर प्रकार का आचरण मिथ्यात्व से ओतप्रोत होता है।
तीन अपात्रों में प्रथम वे परिग्रही साधु जिनका, अन्तःकरण के साथ-साथ बाह्य आचरण भी अशुद्ध होता है। दूसरे वे श्रावक जो श्रावक के गुणों से भी शून्य होते हैं, भक्ष्य अभक्ष्य सभी कुछ ग्रहण करते हैं, तीसरे वे
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