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भी है। दोनों पक्षों को एक साथ ले लेने से तीसरा भंग है (3) अस्तिनास्ति। दोनों विरोधी गुण अस्ति नास्ति एक समय में नहीं कहे जा सकते अत: वह (4) अवक्तव्य है। इस चौथे भंग अवक्तव्य के साथ क्रमशः प्रथम, दूसरे और तीसरे भंग को मिलाने से पंचम, षष्ठ और सप्तम भंग बनते हैं अर्थात् वस्तु का अस्ति स्वरूप नास्ति स्वरूप भी साथ होने के कारण एक साथ नहीं कहा जा सकता अतः पाँचवा भंग है (5) अस्तिअवक्तव्य। इसी प्रकार (6) नास्ति अवक्तव्य और सप्तम भंग है (7) अस्ति नास्ति अवक्तव्य। इस लघु रचना में इन्हीं का वर्णन है। सामान्य जीवन में इसकी उपयोगिता बताते हुए कवि ने कहा है
"भैया जे नय जानहिं भेद। तिनके मिटहि सकल भ्रम खेद।"
जब मनुष्य का दृष्किोण एकांगी होता है तब ही समस्त संघर्ष उद्भूत होते हैं अन्यथा नहीं और स्याद्वाद मनुष्य के दृष्टिकोण को विशाल बनाता है। सप्तभंगी के अध्याय में इस पर विस्तार से विचार किया गया है। प्रस्तुत रचना बारह दोहा चौपाई छंदों में बद्ध है। (7) चौदह गुणस्थानवर्ति जीव संख्या-(शिवपंथ-पचीसिका)
चौदह गुणस्थान जैन दर्शन में जीव के मुक्त अवस्था तक उत्तरोत्तर आत्मिक विकास के चौदह स्तर हैं। प्रस्तुत रचना में कवि ने इन्हीं चौदह गुणस्थानों का वर्णन किया है। जैसा कि रचना के नाम से ही संकेत मिलता है इसमें कवि की दृष्टि इन विभिन्न गुणस्थानों में रहने वाले जीवों की संख्या वर्णन पर केन्द्रित रही है। प्रथम गुणस्थान 'मिथ्यात्व' के जीवों की संख्या अनन्तानंत है। इसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी प्रकार के जीव होते हैं, ये नितान्त अज्ञानी होते हैं अपने हित अहित का इन्हें कोई ध्यान ही नहीं होता। दूसरे गुणस्थान “सासादन' में बावन करोड़ जीव हैं, तीसरे “मिश्र' (सम्यक् मिथ्यात्व) में एक अरब चार करोड़, चौथे 'अव्रत' (असंयत सम्यग्दृष्टि) में सात अरब, पाँचवे 'देशविरतपुर' (संयतासंयत) में तेरह करोड़ जीव रहते हैं। छठे गुणस्थान 'प्रमत्त संयत' में पाँच करोड़ तिरानवें लाख अटठानवें हजार दो सौ छः जीव रहते हैं। सातवें अप्रमत्त संयत में दो करोड़ छियानवें लाख निनयानवें सहस्र एक सौ तीन जीव हैं। अष्टम गुणस्थान से दो श्रेणियां हो जाती- उपशम तथा क्षपक। आठवें 'अपूर्वकरण', नवम् 'अनिवृत्तिकरण' तथा दशम् ‘सूक्ष्म साम्पराय' में उपशम श्रेणी में प्रत्येक में
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