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निश्चय होना। (ग) अनुभाग बंध-कर्म में तीव्र अथवा मंद फल देने की शक्ति का निश्चय होना। (घ) प्रदेशबंध-कर्म परमाणु किसी निश्चित संख्या में जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं। कवि के शब्दों में
"मिथ्या अव्रत योग कषाय। बंध होय चहुं परतें आय।
थिति अनुभाग प्रकृति परदेश। ए बंधन विधि भेद विशेष।।" कर्मबंध की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि होने को (2) उत्कर्षण और घटने को (3) अपकर्षण कहते हैं। कर्मबंध के पश्चात् जीव के अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार पूर्वबंध कर्मों में उत्कर्षण अथवा अपकर्षण हो जाता है। कर्म के फल देने से पूर्व जीव के साथ बंधे रहने की अवस्था को (4) सत्ता, फल देने की अवस्था को (5) उदय, तथा नियत समय से पूर्व ही फल देने को (6) उदीरणा कहते हैं। जब कर्म अपने ही सजातीय कर्म के किसी दूसरे भेद में परिवर्तित हो जाता है उसे (7) संक्रमण, तथा कर्म को उदित हो सकने के अयोग्य कर देना (8) उपशम कहलाता है। कर्म का उदय और संक्रमण न हो सकना (9) निधत्ति तथा उत्कर्षण अपकर्षण न हो सकना (10) निकाचना कहलाता है।
यह वर्णन कवि ने जैन दर्शन के प्रसिद्ध ग्रंथ गोम्मटसार के अनुसार किया है
"ए दशभेद जिनागम लहे, गोमठसार ग्रंथ में कहे।"
प्रस्तुत रचना पन्द्रह दोहा चौपाई छंदों में निबद्ध है। (6) सप्तभंगी वाणी
जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है-अनेकान्तवाद अर्थात् वस्तु अनेकधर्मा है किन्तु उसके एक धर्म को ही एक समय में वर्णित किया जा सकता है, सब धर्मों को एक साथ नहीं। अतः जब एक समय में एक धर्म का वर्णन करते हैं तो उस वस्तु को किसी एक अपेक्षा से कहते हैं इसी को कहते हैं स्याद्वाद अर्थात् किसी अपेक्षा से कथन करना। किसी वस्तु के सम्बन्ध में कथन के सात ढंग हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। इन्हें ही सप्तभंगी कहते हैं किसी वस्तु का अस्तित्व होना (1) अस्ति है, यह उसके अपने स्वभाव की अपेक्षा, से है। पर वस्तु के स्वभाव की अपेक्षा से वह नहीं है अत: वह (2) नास्ति
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