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________________ (4) एकत्व भावना से तात्पर्य है जीव अकेला ही आता है अकेला ही जाता है, साथी सम्बन्धी कोई भी अपना नहीं है। (5) अन्यत्व भावना में कहा गया है कि जहाँ देह ही अपनी नहीं फिर वहाँ अपना कौन है, सब पर पदार्थ है अतः इनका साथ छोड़ना चाहिये "तू चेतन वे जड़ सरवंग। तो तजह परायो संग।" (6) अशुचि भावना जिसमें शरीर की अपवित्रता पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। (7) आस्रव भावना में कर्म आकर जीव से बंध जाते हैं यही विचार रखा जाता है। (8) संवर भावना कर्मों का आना और बंधना कैसे रोका जाय, इस बात का विचार ही संवर भावना है। (9) निर्जरा भावना अर्थात् पूर्व बंध कर्म कैसे झड़ें इसका ध्यान रखना ही निर्जरा है। (10) लोक भावना लोक और उसमें जीव की स्थिति पर विचार करना ही लोक भावना है। (11) धर्म भावना से तात्पर्य है धर्म के सम्बन्ध में विचारना। (12) बोधि-दुर्लभ-भावना अर्थात् सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति अत्यंत सरल है किन्तु सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है। इस प्रकार इन बारह भावनाओं का मनन करके मानव के हृदय में वैराग्य की भावना उद्भूत होती है। प्रस्तुत रचना पन्द्रह चौपाई छंदों में बद्ध है। (5) कर्मबंध के दश भेद जैन धर्म में कर्मसिद्धान्त का सूक्ष्म निरूपण किया गया है। कर्म सूक्ष्म पुद्गल पदार्थ होते हैं जो जीव की मन वचन और शरीर की प्रवृत्ति से आकृष्ट होकर तथा कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) का संयोग पाकर उससे संयुक्त हो जाते हैं इसी को कर्म बंध कहते हैं। बंधन से लेकर उनके उदय होने अथवा अयोग्य हो जाने तक की दस अवस्थाएं होती हैं इन्ही का प्रस्तुत रचना में वर्णन किया गया है। ये दस अवस्थाएं इस प्रकार हैं(1) बंध- कर्म का जीव से संयुक्त होना ही बंध है। यह बंध चार प्रकार से होता है। (क) प्रकृति बंध-ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के रूप में परिणत हो जाना। (ख) स्थिति बंध-कर्म कितने समय तक जीव के साथ बंधे रहेंगे इसका (57) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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