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आचार्य नेमिचन्द्र विरचित प्रसिद्ध जैन ग्रंथ 'त्रिलोकसार' के अनुसार पौष सुदि पूर्णिमा रविवार, वि0 सं0 1740 में की है। (3) एकादश गुणस्थान पर्यन्तपंथ वर्णन
जैन दर्शन में मनुष्य के द्वारा आत्मिक विकास करते करते मोक्ष तक पहुँचने की यात्रा को चौदह स्तरों अथवा श्रेणियों में विभक्त किया गया है इन्हीं को चौदह गुणस्थान माना गया है। पं0 कैलाश चन्द्र शास्त्री ने इन गुणस्थानों को 'आध्यात्मिक उत्थान और पतन के चार्ट' के समान बताया है। मनुष्य के मनोविकारों के शमन और उत्तम गुणों के उत्तरोत्तर विकास की ये चौदह सीढ़ियाँ हैं। प्रस्तुत रचना में कवि ने ग्यारह गुण स्थानों का ही वर्णन किया है। उसकी दृष्टि इसमें मुख्यतः नाम परिगणन पर ही केन्द्रित रही है। प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्व है जिसमें जीव अपने स्वरूप और हित-अहित का कोई विचार नहीं करते। द्वितीय गुणस्थान सासादन, तृतीय मिश्र (सम्यक् मिथ्यात्व), चतुर्थ अव्रतपुर (असंयत सम्यक्), पंचम देशविरतपुर (संयतासंयत), षष्ठ प्रमत्तसंयत, सप्तम अप्रमत्त संयत, अष्टम अपूर्वकरण, नवम् अनिवृत्तिकरण, दशम् सूक्ष्मसाम्पराय, एकादशम्-उपशांत कषाय है ग्यारहवें गुणस्थान उपशांत तक पहुँचते-पहुँचते मुनिअवस्था आ जाती है और सब कषायों के शांत हो जाने से परिणाम अत्यंत शुद्ध हो जाते हैं। इस विषय पर गुणस्थान सम्बन्धी अध्याय में विस्तार से विचार किया गया है। प्रस्तुत रचना कवि ने जैन दर्शन के प्रसिद्ध ग्रंथ आचार्य नेमिचन्द्र कृत गोमटसार के
अनुसार की है तथा यह रचना इक्कीस दोहा चौपाई छंदों में निबद्ध है। (4) बारह भावना
जैन दर्शन में सांसारिक भोग विलासों से मानव हृदय में विरक्ति उत्पन्न करने के लिए बारह भावनाओं को मान्यता दी गई है जिनका मनन करने से मन में स्वतः ही वैराग्य उत्पन्न होने लगता है। कवि ने भी इसी उद्देश्य से 'बारह-भावना' काव्य का सृजन किया है। ये बारह भावनाएं हैं(1) अनित्य भावना अर्थात् संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर है। (2) अशरण भावना जिसमें बताया गया कि संसार में मरण आदि विपत्ति से जीव की रक्षा करने वाला कोई नहीं है
"कोऊ न तेरो राखनहार, कर्मनवस चेतन निरधार।" (3) संसार भावना अर्थात् इस संसार में सभी दुखी हैं, कहीं भी सुख नहीं है।
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