SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किया है। सर्वप्रथम दया की व्याख्या की है जिसके दो भेद हो जाते है- निज और पर दया। निज दया से तात्पर्य है आत्मिक आनन्द में लीन रहना और दूसरी प्रकार की दया से तात्पर्य है संसार के समस्त प्राणियों की मन, वचन, काय से यथाशक्ति रक्षा करना। इसी प्रकार वत्सलता (धर्म के प्रति), सज्जनता, निजनिंदा, समता, भक्तिभाव, वैराग्य, धर्मराग, प्रभावना, हेय उपादेय (संसार से सम्बंधित वस्तुओं का त्याग), धीरज (धर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा), हर्ष तथा प्रवीनता नामक गुणों का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत कृति 73 दोहा चौपाई छंदों में बद्ध है तथा इसकी रचना माघ कृष्ण दशमी, मंगलवार संवत् 1740 में की गई। (2) लोकाकाश क्षेत्र परिमाण कथन प्रस्तुत रचना में भैया भगवतीदास ने जैन दर्शन के अनुसार लोक रचना का वर्णन किया है। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि अनन्त आकाश का एक छोटा-सा भाग मात्र है। उसके अनुसार आकाश के दो भेद होते है, लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश आकाश का वह भाग है जहाँ आकाश के अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य भी विद्यमान होते हैं और इसके अतिरिक्त शेष सब अलोकाकाश है वहाँ आकाश द्रव्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। लोकाकाश का आकार, कटि भाग पर दोनो हाथ रखकर, दोनो पैर फैलाकर खड़े हुये पुरुष के समान है, उसकी पूरी उंचाई चौदह राजू है। इसके नाभि प्रदेश में मध्य लोक अर्थात् मनुष्यलोक है, अधोभाग में सात नरक तथा ऊर्ध्वभाग में स्वर्ग और लोक के सबसे ऊपर अग्रभाग में सिद्ध शिला है जहाँ संसार से मुक्त होकर जीव विराजमान हो जाते है। भैया भगवतीदास ने प्रस्तुत रचना में लोक के क्षेत्रफल का विस्तार से वर्णन किया है। अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं, कवि ने उनका पृथक-पृथक क्षेत्रफल भी बताया है। समस्त अधो-लोक का क्षेत्रफल एक सौ छियानवें घन राजू है। ऊर्ध्वलोक में सोलह स्वर्ग, नवग्रैवेयक तथा सिद्ध शिला है, कवि ने इनका पृथक रूप में क्षेत्रफल भी बताया है। सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोक का क्षेत्रफल एक सौ सेंतालीस घन राजू है। इस प्रकार सम्पूर्ण लोकाकाश का क्षेत्रफल तीन सौ तैंतालीस घन राजू है। इस लोक के मध्य में ऊपर से नीचे तक एक राजू चौड़ी त्रसनाली (सनाड़ी) है त्रस जीव (द्वि-इन्द्रिय से पंच-इन्द्रिय तक) इस में ही रहते हैं, इसके बाहर केवल स्थावर जीवों की सत्ता है। 'लोकरचना' सम्बन्धी अध्याय में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। कवि ने इस कृति की रचना (55) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy