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लिया था। भारतीय सन्तों की यह परम्परा परमहंस रामकृष्ण तक अविछिन्न भाव से चली आई है। केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रंथों को साहित्य सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें आदि काव्य से भी हाथ धोना पड़ेगा, तुलसी रामायण से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दंडवत करके विदा कर देना होगा।13
__ अतः दर्शन प्रधान अथवा धार्मिक रचनाओं को साहित्य की सीमा से निष्कासित नहीं किया जा सकता।
प्रायः इस प्रकार की विभाजन रेखा खींचना कठिन है जिससे दर्शन प्रधान, उपदेशात्मक, रूपक कथा आदि साहित्य को पृथक-पृथक विभागों में विभाजित किया जा सके क्योंकि एक ही रचना में कुछ दार्शनिक सिद्धान्त भी होते हैं, उपदेशात्मकता भी होती है और कभी उसे रूपक शैली में भी प्रस्तुत किया जाता है। ऐसी स्थिति में प्रमुखता पर ही दृष्टि रखी जाती है। जिस प्रवृत्ति की प्रधानता दृष्टिगत होती है उसे उस ही कोटि में रख दिया जाता है। भैया भगवतीदास की रचनाओं को इसी आधार पर वर्गीकृत करके इस अध्याय में उनकी दर्शन-प्रधान रचनाओं का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। (1) गुणमंजरी
भैया भगवतीदास ने इस रचना में सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर उनके गुण रूपी मंजरियों का विस्तृत वर्णन किया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार सम्यक दर्शन ज्ञान और चारित्र को मोक्ष का मार्ग स्वीकृत किया गया है इसीलिए इनको त्रिरत्न या 'रत्नत्रय' भी कहते हैं। इन्हीं त्रिरत्न का कवि ने वृक्ष के साथ रूपक बांधा है
"ज्ञान रूप तरू ऊगियो सम्यक् धरती माहिं। दर्शन दृढ़ शाखा सहित, चारित दल लहकाहिं। लगी ताहि गुण मंजरी, जस स्वभाव चहुं ओर। प्रगटी महिमा ज्ञान में, फल है अनुक्रम जोर।।"
सम्यक्त्व की धरती से ज्ञान रूपी वृक्ष की उत्पत्ति होती है उसमें दर्शन की दृढ़ शाखाएं फूटती हैं और उन शाखाओं में चरित्र रूपी पत्र लगते हैं और गुण रूपी मंजरियां और फिर इन मंजरियों के फलस्वरूप शिवफल-मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस रचना में कवि ने गुण रूपी मंजरियों का विस्तृत वर्णन
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