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बनने का मार्ग बतलाया जाता है।" इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दर्शन धर्म का सैद्धान्तिक अथवा ज्ञानात्मक पक्ष है, भक्ति धर्म का भावात्मक पक्ष है तो धर्म दर्शन का व्यावहारिक रूप है।
धर्म, दर्शन और साहित्य का संगम आदिकाल से होता चला आ रहा है। साहित्य के आदि ग्रंथ वेद हिन्दू धर्म और दर्शन के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। वस्तुतः प्रारम्भ में ऋषि और मनीषी जो कुछ आत्मसाक्षात्कार करते थे उसी को साहित्य के रूप में सृजित करते थे अतः संस्कृति के आदि काल में साहित्य और दर्शन एक रूप थे, दर्शन काव्य था तो साहित्य उसका वाचक। अतः दर्शन धर्म और साहित्य के समन्वित रूप की धारा आदिकाल से अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है।
हमारे देश में दर्शन प्रधान साहित्य की परम्परा अत्यन्त समृद्ध रही है। वेद, पुराण, स्मृतियां आदि हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथ हैं, जो संस्कृत में लिखित है। पाली भाषा बौद्ध साहित्य से समृद्ध है तो प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में जैन साहित्य का विपुल भंडार है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में नाथ और गोरखपंथियों का साहित्य तथा भक्तिकाल का लगभग सम्पूर्ण साहित्य किसी न किसी धर्म और दर्शन से सम्बन्धित है। हिन्दी जैन साहित्य अत्याधिक महत्वपूर्ण एवं समृद्ध होते हुए भी हिन्दी इतिहासकारों द्वारा उपेक्षणीय बना रहा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा डॉ0 रामकुमार वर्मा जैसे मूर्धन्य साहित्यकार एवं आलोचकों ने इसे हिन्दी साहित्य के इतिहास में कोई स्थान नहीं दिया और धार्मिक साहित्य कहकर उसकी उपेक्षा कर दी। किन्तु धार्मिकता इतना बड़ा दोष नहीं जिसके कारण किसी रचना को साहित्य की परिधि से ही बाहर कर दिया जाये। यदि ऐसा ही मान लिया जाये तो साहित्य के बहुत से ग्रंथ अपने महत्वपूर्ण पद से वंचित हो जायेंगे। इस तथ्य पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि गई। उन्होंने ही सर्वप्रथम घोषणा की "स्वयंभू, चतुर्भुज, पुष्पदंत और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते। धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरित-मानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा।.... बौद्धों, ब्राह्मणों और जैनों के अनेक आचार्यों ने नैतिक और धार्मिक उपदेश देने के लिये लोक कथाओं का आश्रय
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