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दर्शन- प्रधान रचनाएं
संसार का प्रत्येक प्राणी अपने हृदय में सुख की उत्कट कामना रखता है | दुःख से निवृत्ति तथा सुख की अक्षय प्राप्ति ही उसके जीवन का लक्ष्य रहता है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अनादि काल से वह साधना - यात्रा करता चला आ रहा है। युग-युग की साधना के पश्चात् संसार के सर्वाधिक प्रबुद्ध प्राणी मानव ने अनुभव किया कि अक्षय सुख की प्राप्ति सांसारिक उपकरणों से सम्भव नहीं है, यदि वह सम्भव है तो केवल आध्यात्मिकता तथा धर्म से । आध्यात्मिकता अर्थात् आत्मा सम्बन्धी तत्वों का ज्ञान ही दर्शन है। श्री बलदेव उपाध्याय के अनुसार, "दर्शन शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है- दृश्यते अनेन इति दर्शनम् - जिसके द्वारा देखा जाय। कौन पदार्थ देखा जाय ? वस्तु का सत्यभूत तात्विक स्वरूप क्या है ? हम कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? इस सर्वतो दृश्यमान जगत का सच्चा स्वरूप क्या है ? इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई ? आदि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शन का प्रधान ध्येय है । 11 मनीषियों ने आत्मासाक्षात्कार करके जिस सत्य के दर्शन किये वही 'दर्शन' है।
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वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। आत्मा का स्वभाव है अक्षय सुख की प्राप्ति, जो इस संसार से मुक्त होकर ही उपलब्ध हो सकती है। इसी लक्ष्य की सिद्धि हेतु जीवात्मा इस संसार में भटक रहा है। अतः जो तत्व इस सिद्धि में जीव का सहायक हो सकता है वही धर्म है। पं0 कैलाशचन्द शास्त्री के अनुसार 12 " जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस मुक्ति की प्राप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। चूंकि आचार या चरित्र से इनकी प्राप्ति होती है इसलिए चरित्र ही धर्म हैं। इस प्रकार धर्म शब्द से दो अर्थों का बोध होता है, एक वस्तु स्वभाव का और दूसरे चारित्र या आचार का। इनमें से स्वभाव रूप धर्म तो क्या जड़ और क्या चेतन, सभी पदार्थों में पाया जाता है.... किन्तु आचार रूप केवल चेतन आत्मा में ही पाया जाता है। इसीलिए धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है। प्रत्येक तत्वदर्शी धर्म-प्रवर्तक ने केवल आचार रूप धर्म का ही उपदेश नहीं किया किन्तु वस्तु स्वभाव रूप धर्म का भी उपदेश दिया है जिसे दर्शन कहा जाता है। इसी से प्रत्येक धर्म अपना एक दर्शन भी रखता है। दर्शन में, आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विश्व क्या है ? ईश्वर क्या है ? आदि समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया जाता है और धर्म के द्वारा आत्मा को परमात्मा
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