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________________ (10) सुआबत्तीसी सुआबत्तीसी भी भैया भगवतीदास जी का एक आध्यात्मिक रूपक काव्य है जिसमें आत्मा का शुक के रूप में रूपक बांधा गया है। शुक की एक प्रसिद्ध लोक कथा को इस काव्य में आधार बनाया गया है। रूपक इस प्रकार है कि आत्मा रूपी शुक को सद्गुरु उपदेश देता है कि वह कर्मरूपी वन में भूलकर भी प्रवेश न करें क्योंकि वहाँ लोभ रूपी नलिनी ने मोह रूपी धोखा देने के लिए विषय सुख रूपी अन्न को संजो रखा है। यदि भूल से वहाँ चला भी जाये तो उस पर बैठे नहीं, यदि बैठ जाये तो दृढ़ भाव से ग्रहण न करे, यदि ग्रहण भी कर ले तो उस सबको छोड़कर उड़ जाये। गुरु से निशदिन यह पाठ पढ़ने वाला आत्मरूपी शुक एक दिन गुरु की संगति छोड़ वन को उड़ चला और वहाँ जाकर विषय वासनाओं में आसक्त होकर फंस गया "बैठो लोभ नलिन पै जवै। विषय स्वाद रस लटके तवै।। लटकत तरै उलटि गये भाव। तर मुंडी ऊपर भये पांव।।" तब उसे गुरु उपदेश का स्मरण आता है, और एक दिन अवसर पाकर वह भाग खड़ा होता है, वह वन में भटक ही रहा था कि वहाँ एक साधु धर्म देशना कर रहे थे "यह संसार कर्मवन रूप। तामहि चेतन सुआ अनूप।। पढ़त रहै गुरु वचन विशाल। तौहु न अपनी करै संभाल।।" शुक ने यह सब सुना और मन में कहने लगा यही सब तो मेरी दशा है। ये ही सच्चे गुरु संसार रूपी सागर से पार उतारने वाले हैं। शुक गुरु की गुण स्तुति करने लगा, घट के पट खुल गये, "मैं चेतन के सभी गुणों से युक्त होकर भी परद्रव्यों में आसक्त रहा।" कर्मरूपी कलंक सब झर गये, दिन पर दिन वह शिवरूप होता गया। ___ इस रूपक कथा के माध्यम से कवि ने स्पष्ट किया है कि पुरुष विषय-सुखों में आसक्त होकर आत्मस्वरूप और अपने लक्ष्य को भूल जाता है और अनेकानेक प्रकार के सांसारिक कष्ट भोगता है। इस काव्य में कवि ने गुरु के महत्व को भी स्वीकार किया है। सच्चे गुरु के मार्गदर्शन के बिना जीव का कल्याण हो नहीं पाता। पूरा काव्य दोहा और चौपाई छंद में बद्ध है इसमें 34 छंद हैं। अन्तिम दो छन्दों में कवि ने मानव को सुआबत्तीसी सुनकर आत्म कल्याण का संदेश दिया है। संवत् 1753 आश्विन कृष्ण दशमी को इस काव्य की समाप्ति हुई। (51) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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